नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
"तब तो मुझे इस कमरे में रहना चाहिए मिसेज दास। फिर अगर ढूंढ़े?"
"नहीं नहीं, माफ कीजियेगा। जरूरत समझने पर मैं स्वयं ही बुलाऊंगी। देखा तो
आपने कि आपको देखकर कैसी हो गईं थीं।" कर्त्तव्य पालन के गौरव में
गौरवान्विता मिसेज दास रोगिणी के सिरहाने जमकर बैठीं।
अभिमन्यु धीरे-धीरे कमरे से बाहर चला गया। बगल वाले कमरे में जाकर वह
आरामकुर्सी पर लेट गया। सहसा उसके मन में दुःखों का सागर उमड़ने लगा।
कैसा निष्ठुर हो गया है वह?
कैसी हृदयहीनता?
मंजू! मंजू! उसकी प्यारी मंजरी, अभिमानिनी मंजरी, कितना कष्ट दिया है उसे
इतने दिनों से? अभिमानवश ही भीतर ही भीतर घुलती चली गयी मंजरी हां-यही बात
है। डाक्टर घोष ने कहा है, "कमजोरी भी इसकी एक वजह है। इन दिनों कितनी कमजोर
हो गयी थी बेचारी और अभिमन्यु ने उस पर ध्यान न देकर उसके अपराध को ही जांचा।
अगर मंजरी मर गयी?
जिन बातों को आदमी मुंह से कहते हुए डरता है, उन्हीं बातों को मन-ही-मन
निःशब्द उच्चारित करता रहता है...उस पर किसी का कोई वश नहीं। इसीलिए हृदय के
बीच लगातार ध्वनित होता रहा, मंजरी अगर मर गयी, मंजरी अगर मर जाए, मंजरी
जिंदा न रही तो? तब फिर वह अपने आपको कभी माफ न कर सकेगा।
शर्म से किसी को मुंह दिखा सकेगा भला?
अभिमन्यु मर्द हैं, मजबूत हृदय वाले अभिमन्यु समस्त मानमर्यादा को भूल गए।
उनकी आंख से बड़ी-बड़ी बूंदें चू पड़ी जैसी झर रही थीं बगल वाले कमरे में लेटी
मंजरी की बंद आखों से।
दोनों का दुःख भिन्न था।
एक के मन में अभिमान और आशाभंग का दुःख, दूसरे को दुःख था अपराधबोध का और
अपेक्षा का। परंतु अश्रुजल का रूप एक ही था। प्रेम का क्या अंत होता है?
या कि सिर्फ अभिमान और गलत समझने का कोहरा ऐसा छाया रहता है कि प्रेम मृत जान
पड़ता है?
लड़के के हावभाव देखकर पूर्णिमादेवी धीरे-धीरे हताश हुई जा रही थी। ये कैसा
बेटा तैयार किया है उन्होंने? मर्द है या मिट्टी का ढेला? लापरवाह बहू किसी
तरह का नियम कानून न मानकर मनमानी कर रही है, ऐसी एक दुर्घटना का शिकार हो
बैठी और उनका बेटा है कि उसी बहू के लिए पागल हुआ फिर रहा है? न नहाने का
होश, न खाने की सुध, कॉलेज तक नहीं जा रहा है...सिर्फ बहू के कमरे के आसपास
चक्कर काट रहा है। पुराना जमाना और वैसा कड़ा मर्द होता तो ऐसी बीवी को शायद
ही दोबारा स्वीकार करता।
पूर्णिमा की इस क्रोधाग्नि में ईंधन का काम करती उनकी बड़ी बेटी। जो बात
पूर्णिमा सोच रही थीं उसे वह जोर शोर से कह रही थी।
"अच्छी भली, स्वस्थ बीवी, सजधजकर घर से निकली और कुछ ही घंटे बाद घूम-फिरकर
लौटते न लौटते यह बात हो गयी? इसका मतलब क्या हुआ? तुम लोग अगर आंख के रहते
अंधे बने रहो तो रहा करो लेकिन लोग तो अंधे नहीं हो जायेंगे।"
शायद पूर्णिमा इस तरह की आवाज में कहना पसंद नहीं कर रही थीं या बड़ी बेटी की
बात का प्रतिवाद करने का साहस न कर सकीं इसीलिए जल्दी से बोलीं, "क्या पता
बेटी, क्या कर रही थी वहां। शायद नाचने-वाचने का कहा होगा।"
"हुं, नाच नहीं नाच नचाना। कितनी तरह के नाच हैं मां उनकी क्या कोई गिनती है?
कहना ये है कि तुम्हारी प्यारी छोटी बहू के कारण ही हमारा मायके आना बंद हो
जायेगा। इसके बाद क्या मुंह लेकर आना चाहूंगी? छोटी बहू के इस मामले पर कौन
नहीं शक करेगा?"
स्पष्ट स्वच्छ राय दे बैठी बड़ी बेटी।
इस बात का प्रतिवाद कैसे करतीं?
घुमा-फिराकर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सभी एक ही इशारा करते। एक जीव दुनिया
का प्रकाश देखे वगैर ही अंधकार में डूब गया उसके लिए संपूर्ण रूप से
उत्तरदायी है मंजरी।
कौन जाने ये दुर्घटना स्वेच्छाकृत है या नहीं।
"कितनी तरह की छलकलाएं निकलीं हैं आजकल। अपना यह नाच नचाना बंद हो जाने के डर
से ही शायद...''
अभिमन्यु को सुना-सुनाकर ही कहा जाता-जिससे कि उसके कानों में बात घुसे। कोई
अब अभिमन्यु की बात नहीं सोच रहा था।
उसकी मर्यादाहानि स्वयं मंजरी ने ही की थी।
मझली भाभी आकर घंटा दो घंटा बैठतीं और लगातार अफसोस करती रहतीं, "हाय हाय!
कितनी आशाओं के साथ चांदी की सुतुई कटोरी बनवाने दी थी, इरादा था छोटे देवरजी
के बेटे का इसी से मुंह देखूंगी, कथरी बना रही थी फूलपत्तीदार, लेकिन सब कुछ
मटियामेट हो गया।"
"बिलावजह ऐसा कहीं हो सकता है? मैं स्टैम्प कागज में साइन करती हूं इसमें
जरूर कोई राज है।"
मां के कमरे में जाते वक्त ठिठककर खड़ा हो गया अभिमन्यु। कितनी स्वच्छंदता से,
कैसी भयानक बातें कर रही हैं ये लोग?
क्या इनका सोचना सही है?
औरतें ही औरतों को ठीक-ठीक पहचानती हैं।
धूप से पिघला मोम धूप के जाते ही कड़ा हो जाता है। इसी तरह ममता से पिघला हृदय
संदेह के गंदे स्पर्श से सूखकर फड़फड़ाने लगता है।
वे लोग अभिज्ञ हैं, पुराने लोग हैं, समझदार हैं, ये लोग दुनिया को ठीक से
पहचानते हैं।
इनकी बातों पर विश्वास न करे तो क्या करे अभिमन्यु?
कुछ दिनों पहले नर्स एक शत्रु जान पड़ती थी।
सोचता था जिस दिन वह विदा होगी उसी दिन दौड़ा-दौड़ा जायेगा मंजरी के पास। एकांत
में निकटता का अवसर पाते ही क्षमा प्रार्थना करके अपने हृदय को खोलकर रख
देगा। कहेगा, "मंजू मैं पागल हूं पशु हूं मैं नीच हूं मुझे क्षमा करो।"
अकेले कमरे में बार-बार उच्चारण करता, "मंजू तुम ठीक हो जाओ तुम क्षमा कर दो।
क्षमा करो।"
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