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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


बिना आवाज के चलना, बोलना...मद्धिम रोशनी। मृदु नीला बल्व जल रहा था कमरे में, धीमी गति से पंखा चल रहा था।
उसी वक्त डाक्टर देख गये थे। उनके जाते ही मझले भाई भाभी चले गए थे। सिर्फ एक दीदी रोगिणी के सिरहाने बैठी थीं। दूसरी दीदी मां के पास बैठी अफसोस जाहिर कर रही थी। पूर्णिमादेवी बहुत दुःखी थीं। अगर विधाता ही उन्हें ऊंचे पेड़ की चोटी पर बैठाकर सीढ़ी हटा ले तो वह इंसान को क्यों दोष दें?
इन तीन महीनों में मन-ही-मन उन्होंने जिस मंदिर में बाल-गोपाल की स्थापना कर डाली थी, उस मंदिर के स्थापित होने से पहले ही भीत ढह गयी। उन्होंने सोचा था मंजरी के पंख काटकर उसे उड़ना भुला देंगी, वह आशा टूटकर बिखर गयी। अंकुर फूटने से पहले ही पृथ्वी से विदा हो गया।
चैतन्य मंजरी जान भी न पाई कि उसका कितना नुकसान हो गया लेकिन पूर्णिमादेवी ने अनुभव किया कि कितना नुकसान हुआ।
विशेषज्ञ चिकित्सकों के विदा लेकर चले जाने के बाद, पारिवारिक चिकित्सक नीलांबर घोष आए थे केवल आश्वासन देने। केवल यही नहीं उनकी परामर्श की कीमत थी क्योंकि वे अभिमन्यु के पिता के समय के डाक्टर हैं-लगभग सगे अभिभावक जैसे।
खाट के सिरहाने अभिमन्यु खड़ा था, रोगिणी आखें बंद किए लेटी थी।
रक्तचाप निर्णायक यंत्र को ठीक से डिब्बे में भरते हुए डाक्टर नीलांबर घोष बोले, "नहीं, और किसी तरह की कोई गड़बड़ी नहीं है, कुछ दिनों तक पूरी तरह से विश्राम करेगी तो आशा है ठीक हो जायेगी।"
अभिमन्यु ने एक बार निद्रिता की तरफ देखने के बाद मृदुस्वर में पूछा, "लेकिन अचानक इस तरह से होने का क्या कारण हो सकता है?"
"कारण बता सकना कठिन है। सिर्फ एक ही कारण नहीं हो सकता है...किसी भी बीमारी का एक ही कारण नहीं होता है। कभी-कभी छोटे-छोटे कारण इकट्ठा होते-होते देहयंत्र अचानक विद्रोह कर बैठता है अथवा सारे यंत्र ही खराब हो जाते हैं।"
"फिर भी ऐसे मामलों में एक न एक कारण तो होता ही होगा।"
नीलांबर हंसकर बोले, "वह तो रहता है। मान लो गिर गयी उससे चोट लगना, आकस्मिक किसी तरह का शोक पाकर उसका शॉक, गुस्सा दुःख भय भी और शारीरिक दुर्बलता जैसे अनेक कारण हो सकते हैं। जब ये सब कारण नहीं है तब कहना पड़ेगा कि जनरल हेत्थ ही ठीक नहीं थी। तुम कह रहे थे बाहर से आते ही ऐसा हुआ? कहां गयी थीं या गए थे तुम लोग? दावत?''
पुराने ख्यालों के आदमी, मान बैठे थे कि बाहर गयी होगी तो अभिमन्यु भी साथ ही होगा। इसीलिए उससे पूछने से सही बातें मालूम होंगी।
डाक्टर बाबू का प्रश्न सुनकर अभिमन्यु ने चौंककर उत्तर दिया, "न! यूं ही जरा घूमने...वैसे कितने दिन रेस्ट लेना जरूरी लगता है डाक्टर चाचा?" 
"और कितना?" प्रस्थान करने के लिए उठकर खड़े हो गए डाक्टर नीलांबर, "दस बारह दिन लेटी रहे इसके बार हफ्ते भर घर ही में चले फिरे...और क्या? चिंता की कोई बात नहीं है।"
डाक्टर चले गए-पीछे-पीछे अभिमन्यु।
हाथों हाथ फीस दी नहीं जा सकती थी-डाक्टर सगे जैसे थे। कार पर बैठने के बाद चुपचाप रुपया उनकी जेब में रखकर उदास भाव से अभिमन्युल बोला, "तो आपका कहना है कि डरने की कोई बात नहीं?"
"नहीं भाई नहीं। कहा तो घबराने की कोई बात नहीं है, यह सब तो हमेशा ही हुआ करता है। हां, कुछ दिनों के लिए दौड़ भाग बंद करना होगा। छोटी बहूमां जरा चंचला प्रकृति की हैं न। तुम्हारी चाचीजी कह रही थी 'सिनेमा' में काम कर रही है...बात सच है क्या?"
अवाक् नहीं होबूंगा सोचकर भी अवाक् हुआ अभिमन्यु। आश्चर्य की बातें देखो, कहां भी बात कहां जा पहुंचती है।
कुंठित हंसी हंसा अभिमन्यु, "कुछ कहिए मत, पागलपन सवार हो गया है खैर, यही उसके लिए शिक्षा हो गयी...और हां, आज जो इंजेक्शन लगा है वही कल भी लगेगा क्या?"
"शाम को देख लूंगा-जैसा होगा...तुम्हारे मित्रा साहब क्या बोले?" 
"वह तो कह गए कि दो तीन दिन लगाओ।"
"वैसे मुझे तो नहीं लगता है इसकी जरूरत है पर वे ठहरे स्पेश्लिष्ट...उनकी राय शिरोधार्य है।" हंसकर बोले नीलांबर ड्राइवर ने कार चला दी।
मिनट भर चुपचाप खड़े रहने के बाद अभिमन्यु ऊपर आया। देखा नर्स रोगिणी के चेहरे पर झुककर कुछ कह रही है। जरा आग्रह प्रकट करते हुए अभिमन्यु ने दबी आवाज में पूछा, "वह क्या बात कर रही हैं मिसेज दास?"
"हां, थोड़ी देर पहले पानी मांगा था और पूछ रही थीं कि आप कहां हैं?"

पूरे तीन दिन तक मंजरी ने बात नहीं की। होश आने पर भी अजीब सी सुस्ती में डूबी सोती रहती थी।
अभिमन्यु के खाट के पास जाते ही मिसेज दास ने हुक्मनामा जारी किया, "बात करने की कोशिश मत कीजिएगा, इससे नुकसान होने की संभावना है। उन्हें चुपचाप लेटी रहने दीजिए।"
"बात नहीं करूंगा" कहकर अभिमन्यु ने पास जाकर मंजरी के हाथ पर हाथ रखा। धूप ने झुलसे रजनीगंधा के डंठल की तरह शिथिल पड़ा था मंजरी का हाथ बिस्तर पर।
मंजरी ने आँखें खोलीं-कुछ देर तक देखती रही सूनी-सूनी निगाहों से, उसके बाद उस दृष्टि में भाषा स्पष्ट हुई। बहुत दिनों की अनबोली बातें, पुंजीभूत अभिमान और एक अनजाना अनकहा भय-तरह-तरह के प्रश्न भार।
फिर बंद हो गयी पलकें...धीरे-धीरे समय लेते हुये। और उसकी बंद पलकों के किनारों से दो बड़ी-बड़ी बूंदें चू पड़ी।
"मिस्टर लाहिड़ी, कृपा कर आप बगल वाले कमरे में जाएं। देख रहे हैं न, पेशेंट अपसेट हो रही हैं।"
नर्स मिसेज दास ने विनयपूर्वक कहा।
गांव की लड़की, अभाववश किसी तरह से नर्सिंग सीखकर जीविका अर्जन कर रही है इसीलिए अपनी सीखी हुई विद्या पर उसे अटूट विश्वास है। वह जानती है रोगी को डिस्टर्व नहीं करना चाहिए और यह भी जानती है कि सबसे ज्यादा डिस्टर्व करते हैं रोगी के नाते रिश्तेदार, सगे संबंधी। अतएव यथासंभव उन्हें कमरे से निकाल देना ही ठीक होता है। इसके अलावा छोटा होकर बड़े पर, श्रमिक का मालिक पर और अनभिज्ञ का भिज्ञ पर हुक्म चलाना यदाकदा ही संभव होता है-भला ऐसा मौका हाथों में पाकर कोई छोड़ता है?
अभिमन्यु लज्जित होकर हटते हुए बोला, "अच्छा, मैं बगल वाले कमरे में ही रहूंगा, जरूरत समझें तो बुलाइएगा। लेकिन वह मुझे पूछ क्यों रही थीं?" 
"वह कुछ नहीं मिस्टर लाहिड़ी। सेंस वापस लौटते ही आपको खोजना तो स्वाभाविक ही है।"

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