लोगों की राय

नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

445 पाठक हैं

आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


निशीथ राय ने खड़े होकर अंगड़ाई ली। कहा, "न: एक प्याला चाय पीए वगैर काम नहीं चल रहा है। कहां...हमारे बिष्टुचरण गये कहां? मंजरीदेवी आप भी लेंगी न?''
"नहीं।"
"पी लेतीं। तबीयत ठीक हो जाती।"
"तबीयत ठीक है।" कहती हुई मंजरी आगे बढ़ गयी। लेकिन क्या सचमुच तबीयत ठीक थी? वही अनजाना क्रूर दर्द का झटका बार-बार डंक मार रहा था मेरुदंड में।
फिर भी चेहरे पर हंसी बिखेरती कर्त्तव्य पालन के लिए तैयार हुई। विशेषकर भूमिका के इस अंश के लिए। प्रेमगर्विता तरुणी पत्नी अपने पति की प्रवास यात्रा स्थगित करवाना चाहती है अपनी हंसी से, सुहाग के ब्रह्मास्त्र से। स्वामी अर्थात् निशीथ राय का हाथ पकड़कर मधुर हंसी और बिलोल कटाक्षपात के साथ मंजरी को कहना होगा, "जाओ तो जरा इस बंधन को तोड़कर देखूं तो कितना जोर है।"

कई बार सुना पार्ट फिर भी बहुत बार शॉट लेना पड़ रहा था। लेकिन किसी भी तरह से मंजरी स्वाभाविक अभिनय नहीं कर पा रही थी। चिढ़कर तिक्तस्वर में गगन घोष बोले, "पहला शॉट तो बहुत अच्छा हुआ, अचानक अब क्या हो गया? चेहरा देखकर लग रहा है जैसे बिच्छू डंक मार रहा है। नए लोगों को लेने से यह मुश्किल होती है।...अरे ओ दीपक...क्या लग रहा है? एक शॉट और लेना पड़ेगा क्या?
निर्लिप्त भाव से दीपक बोला, "हो जाए।"
अतएव फिर से हंसी से दमकता चेहरा लेकर दौड़कर आना फिर से निशीथ राय का हाथ पकड़ मधुर स्वरों में बिलोल कटाक्षपात करते हुए कहना, "जाओ तो भला इस बंधन को तोड़कर? देखूं जरा तुम्हारी ताकत को।"
आज इतना भर 'शट' करना था लेकिन खत्म ही नहीं हो रहा था। मंजरी ध्यान ही नहीं देती है कि उसकी गलती की वजह से ही यह 'शॉट' ठीक नहीं हो रहा है...वह धीरे-धीरे थकने लगी, क्लिष्ट होती गयी।
खैर, किसी तरह से 'बंधन कटने कटाने' का सीन खत्म हुआ। निशीथ राय की दूसरी जगह शूटिंग थी, वह बराबर घड़ी देख रहे थे। अतएव पैकिंग हो गयी।
गगन घोष बोले, "आज अचानक आपको हुआ क्या?'' उनकी आवाज में चिड़चिड़ापन था, विस्मत था।
थकी-थकी आवाज में मंजरी बोली, "भयानक सिर दर्द हो रहा है।" 
"अरे? ये बात है? अहा अहा, अरे कौन है? जरा एक टैक्सी तो...''
निशीथ राय ने एक बार और हाथघड़ी पर नजर डाल निर्लिप्त भाव से कहा, "मैं भी उतारकर जा सकता हूं हाँलाकि अगर मंजरीदेवी को कोई आपत्ति न हो तो।"
टैक्सी के आने तक रुकना पड़ेगा, पर मंजरी अब रुक नहीं सकती थी, उससे बैठा नहीं जा रहा था। फिर आपत्ति की क्या बात है? फिर वैसा करना तो पुरातनपंथी कहलाएगा।
इसीलिए मुस्कराकर बोली, "एतराज? अरे आप छोड़ देंगे इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है? मेरी इच्छा हो रही है जल्दी से लेट जाऊं।"
कार पर उसने अपने को एक कोने पर जमा सा लिया। निशीथ राय जनश्रोत में कार दौड़ते चल रहे थे। दोनों खामोश थे।
थोड़े देर बाद निशीथ राय ने ही खामोशी तोड़ी, "रास्ता बताने की जिम्मेदारी लेकिन आपकी है...मैं आपका घर नहीं पहचानता हूं।"
गर्दन उठाकर मंजरी ने बाहर देखा, "अरे, तो फिर अब तक सही रास्ते पर कैसे जा रहे हैं?"
निशीथ राय ने गर्दन घुमाकर उसकी तरफ देखा फिर हंसकर कहा, "कुछ कुछ अंदाज से। सोचा था, चलाता चलूं गलती करूंगा तो आप प्रतिवाद करेंगी ही।"
मंजरी एक सेकंड चुप रहने के बाद जरा सा आग्रह प्रकट करते हुए बोली,  "अच्छा, आपको क्या लगता है, दुनिया में सारा प्रतिवाद गलती के विरुद्ध ही किया जाता है?
"उस प्रश्न का उत्तर देना कठिन है। निश्चिंत व्यवहार श्रृंखला में बंधे मनुष्यों के किसी काम में बाधा पहुंचती है तो प्रतिवाद उठता है। युगयुगांतर के कुसंस्कार मन में, शरीर के चमड़े की तरह, चिपके बैठे रहते हैं। उस संस्कार को उखाड़ना चाहोगे तो आर्तनाद का उठना स्वाभाविक ही है।"
"तब तो उस आर्तनाद, उस प्रतिवाद को न सुनना ही ठीक होगा।"
तीक्ष्ण बुद्धि निशीथ राय मुस्कराकर बोले, "आपने यह प्रसंग क्यों छेड़ा है, समझता हूं। लेकिन असली बात क्या है बताऊं, कुछ लोगों का स्वार्थत्याग, कुछ का विद्रोह और कुछ लोगों का दुःसाहस ही बाकी चलने का रास्ता सुगम कर देता है।"
"लेकिन उचित अनुचित का सवाल तो है।"
"अवश्य ही। लेकिन उस प्रश्न का उत्तर दूसरों के पास नहीं है। हर आदमी में 'उचित बोध' नामक चीज है ही।"
"तब तो दुनिया में अन्याय होता ही नहीं।"
"इस तरह के तूर्क का कोई अंत नहीं।"
'अच्छा, आप खूब पढ़ते हैं न?"
"पढ़ता हूं? हाय हाय, इच्छा तो बहुत है लेकिन समय कहां है?'' 
"जानते हैं? पहले आप लोगों के बारे में कितना कौतूहल होता था अब खुद ही आप लोगों के दल में शामिल हो गयी हूं।"
"अब शायद कौतूहल भंग हो चुका है?''
"क्या पता! रुकिए-रुकिए, अब सीधे नहीं बढ़ना है दाहिनी तरफ मुडिए...ओह!"
"क्या हुआ ?"
"कुछ नहीं। सिर का दर्द...''
दुमंजिले के बारामदे पर खड़े-खड़े अभिमन्यु ने देखा, एक बड़ी सी कार आकर घर के सामने खड़ी हुई, उसमें से एक सूट पहने सुतपुरुष सज्जन उतरे, उतरी मंजरी। विनीत नमस्कार और धन्यवाद जताकर वह घर के भीतर चली आई। वह सज्जन एक जवान युवक की तरह कार में फुदककर जा बैठे। कार स्टार्ट हो गयी।
कुछ आवाजें, कुछ देर खामोशी।
अभिमन्यु क्या मंजरी से बात करने जाए? क्या जाकर पूछे, "जो तुम्हें पहुंचा गए वह सज्जन कौन हैं?"
लेकिन कौन बात करे? मन में तो वितृष्णा और खीज भरी पड़ी है।
न:, अभिमन्यु गया नहीं, अभिमन्यु पत्थर की मूर्ति की तरह बारामदे की रेलिंग के पास खड़ा रहा। पीछे से मंजरी ने पुकारा क्षीण कंठ से, "सुनते हो? एक बार डाक्टर बाबू को खबर करोगे?"
चौंककर अभिमन्यु ने देखा, "डाक्टर बाबू को? क्यों? क्या हुआ?" 
"तबीयत बहुत खराब लग रही है। शायद...शायद...तुम जाओ, अभी आओ। देर करोगे तो मुश्किल हो जायेगी।"
अभिमन्यु उद्विग्न लेकिन रुखी आवाज में बोला, "अचानक हुआ क्या? गिर विर गयी हो क्या? इसीलिए मोटर से...''
'आ:! सवाल बाद में पूछना। हाथ जोड़ती हूं...जल्दी जाओ।"
कमरे का पर्दा हटाकर फर्श पर ही लेट गयी मंजरी और शायद इसी के साथ बेहोश भी हो गयी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book