नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
आए हैं दो सज्जन।
जोर जबर्दस्त। विनय से विगलित, जुड़े हाथों का जोड़ ही नहीं खुल रहा था। खैर,
शुभ संभाषण का लेन देन खत्म हुआ तो असली बात पर आ गए वे लोग। उन्हें
मंजरीदेवी की जरूरत है।
मंजरी ने आरक्त मुख से कहा इस अनुरोध का पालन उसके लिए संभव नहीं। क्षमा करना
पड़ेगा।
लेकिन क्षमा करने के लिए वे आये नहीं थे। किस बात का क्या जवाब देंगे यह सब
तय करके ही आए थे वे लोग। अतएव मंजरी को वे समझाकर ही मानें कि एक छोटे से
रोल में जो 'टच' दिया है मंजरी ने, उसे देखकर इनकी अभिज्ञ चक्षु ने जान लिया
है कि मंजरी का भविष्य उज्ज्वल है। 'स्टार' बनने की प्रतिभा साथ लेकर ही वह
पैदा हुई है। बातों की बरसात होने लगी। बातों की फुलझड़ी छूटने लगी। बातों की
लहरें उठने लगीं। मंजरी किस किससे अपना बचाव करें। जितना ही वह आत्मरक्षा की
कोशिश करती, उतना ही वे अपने युक्तियुक्त वाणों से निरुत्तर कर देते। अंत में
'सोचकर बताऊंगी' कहकर मंजरी ने उन्हें विदा किया।
यद्यपि जाते-जाते भी वे लोग ये कहते हुए गये, "इसमें 'सोचना-वोचना' कुछ नहीं
है। मंजरी को दर्शकों की डिमांड पूरी करने के लिए फिल्म में आना ही पड़ेगा।"
यह भी कहते गए कि कल परसों के भीतर ही वे अनुबंध-पत्र लेकर आयेंगे।
निचले मंजिल में एक कमरा अभिमन्यु ने अपने प्रयोजनार्थ रखा था जो दिन के वक्त
बैठक और रात के वक्त श्रीपद का शयनमदिर बन जाता है।
इस कमरे की साजसज्जा के प्रति सभी उदासीन थे। अभिमन्यु के पिता के समय की कुछ
कुर्सियां, जो बदरंग हो गयी थीं और एक मेज-यही बैठक नाम का गौरव वहन कर रही
थी। एक कोने में एक तख्त पड़ा है जो श्रीपद की राजशय्या है। मंजरी ने इस कमरे
के रखरखाव के लिए कभी सोचा तक नहीं था क्योंकि उसकी सहेलियां या रिश्तेदार जो
भी आते हैं, सीधे सीढ़ी चढ़कर ऊपर पहुंच जाते हैं।
अभिमन्यु के दोस्त ही आकर इस कमरे में बैठते हैं।
आज चारों तरफ नजर दौड़ाने पर मंजरी को लगा कमरा कितना गंदा है। ऊपर आकर श्रीपद
से बोली, "कमरे को इतना गंदा क्यों कर रखा है?"
श्रीपद सिर खुजलाता खड़ा रहा।
"अपना तेलचिट्टा बिस्तर तू ढककर क्यों नहीं रखता है?"
नई बात थी इसीलिए श्रीपद ने दोबारा सिर खुजलाया।
अभिमन्यु ने अखबार की आड़ से कहा, "अभी तक इतने बड़े सम्मानीय अतिथि के पांव
की धूल तो पड़ी नहीं थी इसीलिए बेचारे का इस पर कभी ध्यान ही नहीं गया था।"
सुनकर स्तब्ध रह गयी मंजरी।
स्तब्ध होकर बैठी रही बगल वाले कमरे में जाकर।
बड़ी देर तक कुछ सोच न सकी।
सोचते ही नहीं बना।
अचानक एक बड़ी चोट खाने पर जैसे आघात खाई जगह कुछ देर के लिए सुन्न पड़ जाती
है, उसी तरह मन सुन्न पड़ गया मंजरी का।
नीचे से जब ऊपर आ रही थी तब उसने सोचा था, मंजरी को अकेले मुसीबत के मुंह में
धकेल देने के लिए अभिमन्यु को अभिमान भरी बातें कहेगी, किस तरह से 'सोचकर
बताऊंगी' कहकर भयंकर हालत से छुटकारा मिला है-काश अभिमन्यु छिपकर देखता।
देखता तो समझता।
लेकिन यह सब कुछ नहीं हुआ।
स्तब्ध बैठे रहते न जाने कहां से कितनी तरह की चिंतायें आने लगीं। उन चिंताओं
की लहरे मंजरी को बहा ले चलीं। मुसीबत? लेकिन मंजरी क्या इसी मुसीबत की
मन-ही-मन प्रार्थना नहीं कर रही थी? अभी कुछ दिन पहले मंजरी ने जीजाजी को
अपने हाथों से चिट्टी लिखी थी अभिमन्यु से छिपाकर। दूसरी बार फिल्मों में काम
करने की इच्छा प्रकट की थी।
ये लोग जीजाजी के भेजे हुये आदमी भी तो हो सकते हैं? या कि ईश्वर प्रेरित?
मंजरी के गुप्त प्राणों की प्रार्थना सुनी है उन्होंने और भेजा था अभिष्ट
पूर्ण करने का अवसर। इस अवसर को क्या मुसीबत कहकर अस्वीकार दे मंजरी?
छोटी-छोटी लाइनें, टूट-टूटकर मन में बिखरकर इधर-उधर गिर रही थीं। मंजरी के मन
की द्विविधा भी टूटती गयी।
"अपनी क्षमता के बारे में आपकी कोई धारणा नहीं है मंजरीदेवी।"
"आश्चर्य की बात करती हैं? अरे आज के जमाने में निंदा कोई करता है क्या?"
"हां जरूर...आजकल तो संभ्रांत घरों की महिलायें ही इस लाइन में ज्यादा आती
हैं...''
"विश्वास न हो तो अनुग्रह करके एक बार मेरे घर आइए. ''
"किसने आपसे कहा है? घर से भागी लड़की? हा हा हा हा...आप भी क्या कहती हैं?
बाप लड़की को लेकर पति-पत्नी को लेकर हाथ पांव जोड़ रहे हैं...''
"सभी में क्या प्रतिभा का अंकुर रहता है मंजरीदेवी?"
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