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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


"कर क्या रही हो? तकिए की तो छाती की पसलियां चूर-चूर हुई जा रही हैं। ये लो। इसके बाद चिट्ठी न देना हृदयहीनता होगी।" तब तक सुनीति ने चिट्ठी झपट ली।
दो चार बार नजर घुमाकर चिट्ठी पढ़ डाली। उसके बाद ही सुनीति अग्निमूर्ति होकर बोली, "देखा? कहा नहीं था मैंने? कहा नहीं था एक बार बांध तोड़ दिया तो बच पाना मुश्किल होगा। लो, अब साली का हीरोइन बनने का शौक पूरा करो। तुम ही हो। तुम ही सारी बातों के लिए जिम्मेदार हो। तुम्हीं ने उसका सिर खाया है।"
विजयभूषण हंसकर बोले, "तो फिर देखा, इस वृद्धावस्था में भी मुझ में वह कैपेसिटी है।"
"मैं जाती हूं उस राक्षसी का दिमाग ठीक करने।" सुनीति तेजी से कमरे से चली गयी।
लेकिन जायेगी कहां? विजयभूषण भी पीछे लग लिए। झट से आंचल पकड़कर बोले, ''उसका अर्ग्यूमेंट भी असंगत नहीं है। फिल्म लाइन में जब आई ही है तब एक अच्छा सा रोल करके लोगों को चौंका देने की इच्छा स्वाभाविक ही है।''
''हुं। उतरी जब है तब पाताल तक ही उतर जाए।'' फिर भी विजयभूषण सीरियस नहीं हुए। सुनीति का गुस्सा देखकर हंसने लगे।

छोटी सी एक बात।
उसी को लेकर कितना तूफान।
जैसा छोटा सा पत्थर निस्तरंण नदी के जल में तरंग पैदा करता है।
इधर फिलहाल निर्मल नीला पानी ही है।
मां के कमरे से हंसता हुआ अभिमन्यु आया। हंसी रोकने की कोशिश में गंभीर बनते हुए बोला, ''चलो, अब डाक्टर के यहां चलो।''
''डाक्टर के यहां?'' चौंक उठी मंजरी, ''क्यों?''
''क्यों का जवाब तुम जानती हो और जानती हैं तुम्हारी सास।''
मंजरी के फीके चेहरे पर लालिमा दिखाई दी फिर भी कंठ स्वर, स्वाभाविक बनाए रखते हुए कहा, ''डाक्टर के पास जाने की कोई जरूरत नहीं है।''
''तुम्हारे 'नहीं' कहने से कौन सुनता है? पूर्णिमादेवी का हुक्म है। आजकल डाक्टर दिखाने का फैशन है अतएव...ओ: इतनी खुशी हो रही है...जी कर रहा है खूब सीटी बजाऊं।''
''अच्छा? मुझे डाक्टर के यहां जाना है सुनकर खुशी से तुम्हारी सीटी बजाने की इच्छा हो रही है?''

''ऐसी ही इच्छा हो तो रही है?''
''चुप रही। मुझे बहुत बुरा लग रहा है।''
''बुरा लग रहा है?''
''लग ही रहा है। बुरी तरह से खराब लग रहा है।''
सहसा अभिमन्यु गंभीर हो गया। सचमुच का गंभीर। उसी आवाज में बोला, ''यह मनोवृति प्रशंसनीय नहीं है।''
''सो अब क्या करूं? मनोवृति अगर हर समय प्रशंसा के रास्ते पर चलती तो पृथ्वी पर स्वर्गराज्य होता। मुझे बहुत बुरा लग रहा है, बहुत बुरा।''
अभिमन्यु इस बात का उत्तर देने जा रहा था कि कमरे का दरवजा खटखटाकर नौकर श्रीपद भीतर आया। टिपटॉप सभ्य नौकर। पूर्णिमा का दाहिना हाथ।
''छोटी भाभीजी, आपको एक महाशय बुला रहे हैं।''

''मुझे?'' मंजरी ने आश्चर्य से पूछा, ''मुझे भला कौन बुलाएगा रे? जो लोग आते हैं उन्हें तो तू पहचानता है।''
''जी हां, ये महाशय मेरे पहचाने नहीं हैं। बहुत बड़ी एक गाड़ी पर चढ़कर आए हैं और आपको पूछ रहे हैं।''
मंजरी ने अभिमन्यु की तरफ देखकर कहा, ''बहुत बड़ी गाड़ी पर कौन आया होगा और मुझे बुला रहा है? मेरी तो समझ में कुछ नहीं आ रहा है। तुम जाकर देखो न।''
अभिमन्यु का चेहरा कुछ गंभीर था। उदासीन भाव से बोला, ''बुला तुम्हें रहे हैं, मैं जाकर क्या करूंगा?''
''अरे एक बार जाकर देख आओ न? क्या शरीफ आदमी दरवाजे पर खड़े रहेंगे?''
अभिमन्यु मुस्कराकर बोला, ''बड़ी सी गाड़ी पर चढ़कर आये हैं इसीलिए इतना सोच रही हो?...ए श्रीपद जा, जाकर पूछ आ क्या काम है?''
श्रीपद चला गया।
कहना न होगा, थोड़ी देर बाद आकर व्यस्त भाव से बोला, ''भाभीजी कह रहे हैं वह हैं झइरेक्टर गगन घोष, आपसे उन्हें एक जरूरी बात करनी है।''
सहसा एक डर मंजरी के हृदय को आच्छन्न कर बैठा। मूर्ख की तरह बोली, ''क्या जरूरत है यह बताया?''
''पूछा था लेकिन बोले आप ही ओ बतायेंगे।''
मंजरी का चेहरा उतर गया।
अभिमन्यु की तरफ देखकर कातरभाव से बोली, ''सुनो, जाकर देखो न कौन आया है। क्या कहना चाहते हैं?''
लेकिन उसकी कातरता अभिमन्यु को विचलित न कर सकी। वह व्यंग करते हुए बोला, ''कौन आया है यह तो सुन ही लिया। क्या कहना चाहता है, आशा है यह भी अनुमान लगा सकती हो। और फिर बुला तुम्हें रहे हैं, मैं जाकर क्या करूंगा?''
आहत दृष्टि से एक बार उसकी तरफ देखकर मंजरी ने गंभीर भाव से श्रीपद से कहा, ''अच्छा तू बैठ जाकर, मैं आती हूं।''
दोबारा अभिमन्यु की तरफ बिना देखे, खुले बालों को हाथ से लपेट, अलगंडी से एक शॉल लेकर लपेटा और नीचे उतर गयी मंजरी।

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