नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
इसीलिए जो लोग हाथ पांव जोड़ते हैं उन्हें 'बाहर जाने का रास्ता' दिखाकर जौहरी
परिचालक गगन घोष 'जौहर' के दरवाजे पर आकर हाथ पांव जोड़ रहे थे।
मंजरी खुद नहीं जानती थी।
जानती नहीं थी कहां छिपा है उसकी प्रतिभा का वह अग्नि भंडार। जिसकी एक
चिंगारी से उन्होंने मंजरी का आविष्कार कर डाला था।
पर अब मंजरी क्या करे?
काश, अभिमन्यु उसकी इस चिंता का भागीदार होता? लेकिन क्यों? अभिमन्यु की इस
असहयोगिता की वजह क्या है?
विजयभूषण उल्लसित होकर बोले, "ये देख! मन-ही-मन जो चाहती थी, हाथों हाथ वही
पा गयी, फिर यह सूखा उतरा चेहरा क्यों? बल्कि चाह रही थी चार आना, पा गयी
सोलह आने। यह तो इधर से आवेदन निवेदन नहीं, उस पक्ष की ओर से आवेदन निवेदन
है। यह तो आशा से अधिक है।"
सुनीति तीव्र आपत्ति कर उठी, "लड़की की बर्बादी चाहते हो? जैसा देख रही हूं
उसके पतन के तुम ही जिम्मेदार हुए।"
"ओ हो, एक किसी को तो जिम्मेदार होना ही पड़ेगा न? पर मुझे बड़ा मजा आ रहा है।
गगन घोष घर आकर खुशामद कर जाये...अहा! लग जाओ साली। लेकिन हां, अब शौकीन
अभिनय नहीं। मोटी रकम मांगो और अकड़कर बैठी रहो-देखना ठीक देंगे। उनका जिसे
लेने का दिल करना है उसके लिए...''
"चुप रहो तुम।" गरज उठीं सुनीति, "पैसा लेकर करने के मतलब ही हुए पेशेदार हो
जाना।"
विजय बाबू हताश होकर बोले, "बड़ी मुश्किल है। इस दुनिया में कौन पेशेदार नहीं
है? हर एक का कोई न कोई पेशा तो है न?"
"रहने दो। इसके ये मतलब तो नहीं कि शरीफ घर की लड़की रूप गुण बेचकर पैसा..."
"धीरे सुनीति धीरे! रूप की बात क्यों उठाती हो? रूप तो तुम्हारी छोटी बहन से
आज भी तुम्हारा ज्यादा है। पर तुम्हें कोई आफर देगा? कोई नहीं। पर हां, गुण
की बात ठीक है। लेकिन गुण बेचकर पैसा कौन नहीं ले रहा है? गायिकायें नहीं ले
रही हैं? बचाने वाले? लेखिकायें? चित्रकारा? शिक्षिका? सिलने वाली? बुनने
वाली? कौन नहीं?''
सुनीति ने क्रुद्ध दृष्टि से देखते हुए उत्तर ढूंढ़ना चाहा ही था कि विजय
बाबू आगे बोले, "अरे सुनो जी। असल में मंजू की तरह मेरी भी इच्छा हुई है कि
लड़की एक पूरा बढ़िया रोल करके अपनी कैपेसिटी दिखा दे सबको! बस-यही आखिरी बार।"
मन-ही-मन ऐसी ही प्रतिज्ञा करके अनुबंध-पत्र पर हस्ताक्षर किए मंजरी ने। यही
आखिरी बार।
है अभिलाषा पूरी करने की उन्मादना है, अनुरोध के हाथों से छुटकारा पाने की
स्वस्ति, है डर, है अभिमान, है असहायता।
एक तरुण हृदय, कैसे वहन करे इतना सारा बोझ?
और शरीर के भीतर तिल-तिल बढ़ता अनजाने अनुभूति का भार? उसके लिए कितना आतंक
कितनी यंत्रणादायक खुशी मानो किसी एक निरवलंब अनिश्चयता के बीच रास्ता खोती
जा रही है मंजरी, ऐसा कोई भी नहीं है जो उसे भरोसा दिलाए, हाथ बढ़ाकर सहायता
दे।
रह-रहकर शरीर की ग्रंथियां असह्य यातना से ऐंठने लगती हैं, दिल थर-थर कांपने
लगता है, अकारण ही आंखों के कोर भीगने लगते हैं।
लेकिन किसी से कह नहीं सकती है।
किसे कहे?
जिसे सब कुछ बता सकती थी, आवेश और आवेगवश, लज्जा और गौरव से, वह कांच की
दीवार के उस तरफ खड़ा हो जैसे। आंखों की सीमा में है स्पर्श की सीमा में नहीं।
और हैं दीदी।
उन्हें कुछ बताते हुए डर लगता है। अगर वह कठोर शासन की धमकी देकर बंद कर दे
मंजरी का फिल्मों में काम? इसी डर से दीदी से कुछ कहने से कतराती रही।
हैं एक जने और। लेकिन बड़ी प्रखर है उनकी उपस्थिति। उठते बैठते उपदेशों के
बाणों से जर्जरित करके छोड़ेगी मंजरी को। हां-पूर्णिमादेवी को अत्यंत सावधानी
से तंग मंजरी उन्हें नई चेतना का इंगीत, नयी अनुभूति का आभास बताने से डरती।
उन्हें शारीरिक किसी उपसर्ग के कारण हो रही अस्वस्ति के बारे में भी बताते
नहीं बनता।
अतएव हर समय हंसना पड़ता है मंजरी को।
पूर्णिमा की दुश्चिता के भय और सावधान वाणी को हंसकर टालना पड़ता है। कहना
पड़ता है, "आप भी क्या कहती हैं। मैं तो कुछ समझ ही नहीं पाती हूं-जैसी पहले
थी वैसी ही तो हूं।"
देह से मन से।
ठीक जैसी थी, ठीक वैसी ही है, यह दिखाने की कोशिश में, कोशिश करने का कोई अंत
न था। वेवक्त लेटने की इच्छा हो तो तनकर बैठी रहती। विश्राम की आवश्यकता को
जताने के लिए मेरुदंड ऐंठने लगता फिर भी पीठ सीधा रखे बैठी रहती मंजरी। जब तक
न रात हो, तब तक बिस्तर से पीठ नहीं छुलाती थी।
न खा-खाकर कमजोरी बढ़ती जा रही थी, यह बात बता नहीं सकती थी। जिस अपराध की
काँपी में हस्ताक्षर किए बैठी है उससे कहीं नाम ही न खारिज हो जाए, कहीं ये
लोग मेडिकल सर्टिफिकेट दिखाकर मंजरी की आजादी न छीन ले-डर इन बातों का था।
ये बड़े शर्म की बात थी।
बहुत बढ़िया कहानी। लगभग 'सावित्री सत्यवान' के उपख्यान जैसी। दर्शकों की
डिमांड का ध्यान रखकर गगन घोष ने स्वयं ही कहानी खड़ी कर ली थी। और सच तो ये
है कि कहानी खड़ी करना ऐसा कौन सा कठिन कार्य है? गगन घोष के तो समझ में नहीं
आता है कि और पांच लोग 'कहानी कहानी' करके क्यों मरते हैं? लाइब्रेरी उजाड़कर
कहानियां पढ़ रहे हैं, कहानी लेखकों के पास भाग- दौड़कर रहे हैं, अकारण ही इन
लेखकों को पैसा दे रहे हैं, जबकि जरूरत क्या है? कुछ नहीं। सिर्फ अपव्यय।
आजकल लेखकों का दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ा रहता है। वर के पिता की तरह मांगें
हैं, भाव-ताव करते हैं। गगन घोष ऐसे लोगों से मतलब ही नहीं रखते हैं। इस काम
में रखा क्या है? जितना बड़ा लेखक, उसकी कहानी में उतनी ही बातें। इस बातों के
समुद्र से कहानी का उद्धार करने में क्या कम समय नष्ट होता है?
जबकि कोई जरूरत नहीं है।
गगन घोष को चाहिए फिल्म। मनस्तत्व वाली बातों से उन्हें करना क्या है? इससे
अच्छा है अपने 'जरूरत की कहानी तैयार कर ली, झमेला मिट गया। उसमें फालतू
बातें रहती नहीं है। कुछ भी करना नहीं रहता है, पहले कुछ 'सिचुएशन' क्रियेट
करके मन-ही-मन उसे देख लो, सोच लो कौन से कलाकार इसके लिए ठीक होंगे,
भूमिकाओं में खप सकेंगे-बस! उसके बाद चतुराई से इन सभी सिचुएशनों को इकट्ठा
करके एक कहानी बना लो। और क्या चाहिए?
फिल्म बनाने के लिए असल में चाहिए एक प्रयोजक। एक मोटा पैसे वाला प्रयोजक मिल
गया तो फिल्म बनने में कोई दिक्कत नहीं। वरना कहानी? हुं:! वह तो गौण है।
दो ही दिन बैठे होंगे कि यह कहानी 'कमलिका' लिख डाली है गगन घोष ने। इसमें
क्या नहीं है? जैसे गाना है, नाच है, हंसी मजाक है, तो दुःख का समुद्र है शोक
का अग्निदहन है। बाग बागीचा भी है तो श्मशान भी है। एक अदालत के दृश्य के
वगैर फिल्म अधूरी समझी जाती है इसलिए वह भी है। एक रोगशय्या और डाक्टर चाहिए,
वह भी रख लिया है। एक काना लंगड़ा कुबड़ा गूंगा बहरा या विकलांक न हुआ तो फिल्म
जमती नहीं है अतएव वह भी है।
फिर?
इतनी सारी जरूरी चीजें किसी प्रसिद्ध लेखक की किताब में मिल जातीं? हर्गिज
नहीं। इसीलिए जो भी किताब लो, उसे तोड़ते-मरोड़ते, जोड़ते-जोड़ते जान निकलती है।
इसलिए जरूरत क्या है झमेला करने की?
गगन घोष अनुभवी व्यक्ति हैं, जानते हैं दर्शक क्या चाहते है। माने उनके देश
के लोग। वे जानते हैं कि दर्शक, जो इमारत ध्वस्त होकर गिर चुकी है, उसके मलवे
को घेरकर बैठे रहना चाहते हैं। इसीलिए उनके लिए चाहिए सम्मिलित परिवार की
महान उदारता, हिंदू नारी पतिव्रत धर्म पालन का रोमांचकारी दृश्य चाहिए।
'कमलिका' यह सभी कुछ प्रस्तुत करेगा।
हालांकि यमद्वार से मृतपति को छीन लाना जैसे दृश्य अब दिखाये नहीं जा सकते
हैं इसलिए मृतपति की तस्वीर के सामने विधवा की पवित्र मूर्ति के साथ फिल्म
खत्म होगी।
कहानी सुनकर मन में अजीब सा हो रहा था मंजरी के। विधवा का सीन अगर न रहता।
लेकिन यह बात कहे कैसे? कहेगी तो लोग हंसेंगे। इस द्विविधा को मन से भगा दिया
उसने। भगा दिया आधुनिक मन की मदद से पितामह के संस्कारों को।
मेकअप के वक्त जब रूपसज्जाकार फणीदास आधी सिगरेट पीकर फेंक देता है और उसी
हाथ से मंजरी की ठोड़ी पकड़कर दूसरे हाथ से ब्रश लेकर गाल के स्वाभाविक रंग पर
कृत्रिमता लाने की कोशिश करने लगा तब एक रूढ़ परपुरुष के स्पर्श और उग्र
सिगरेट की महक से मंजरी का सारा शरीर सिहर उठा, घृणा से मन तिलमिला उठा, फिर
भी आराम से बैठे रहना सीख गयी मंजरी। सीख गयी आलतू फालतू लोगों के साथ बैठकर
सस्ती चाय पीना। और भी बहुत सी आधुनिक बातें उसने।
नहीं सीखेगी तो कहीं ये लोग पुराने विचारों वाली है कहकर हंसे न?
स्मार्टनेस में अगर काकोली देवियों को पीछे न छोड़ सकी तो फिर फायदा क्या?
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