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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


"अभिमम्यु क्या सोचा है तुमने?"
"एक बार में सीख मिल चुकी है या इसे खींचते चलोगे?''
"ये बड़ा भयानक नशा है?''
"शेरनी को रक्त का स्वाद मिलने की तरह। अभी अगर अंकुर में विनष्ट नहीं किया तो अभिमन्यु की खैर नहीं।
"पत्नी अगर प्रोफेशनल अभिनेत्री बन बैठी तो क्या अभिमन्यु को प्रोफेसरी करना पड़ेगा?''
नाना प्रकार से, नाना रूपों में, घुमा फिराकर एक ही प्रश्न।
आश्चर्य! अभिमन्यु अविचल। पत्नी के काम को निंदनीय कहकर स्वीकार नहीं किया बल्कि समर्थन किया। बोला, "किसके भीतर कौन सी प्रतिभा छिपी रहती है, कौन कह सकता है? हो सकता है मंजरीदेवी बांगलादेश की श्रेष्ठ अभिनेत्री बन जाएं।"
"प्रतिभा! जहन्नुम में गयी प्रतिभा। तू क्या तब भी सिर उठाकर घूम सकेगा?''
"अवश्य ही। क्यों नहीं? तब तो बड़ी कार में चढ़कर घूमा करूंगा। बड़ी कार पर चढ़ने से मुंह और छाती दोनों खुद व खुद बड़े हो जाते हैं।"
"छात्रायें थूकेंगी तुझ पर?"
"छात्रायें? दिन फिर गए तो कौन जाता है छात्राओं कों पढ़ाने? पांव पर पांव धरकर खाऊंगा और भविष्य में डाइरेक्टर बनकर ठाठ से जम जाऊंगा।"
बातों से बात बड़ी, बहस से बहस।
लेकिन अभिमन्यु को बातों से जीता न जा सका।
मन-ही-मन अभिमन्यु ने मंजरी को न आने के लिए धन्यवाद दिया उसकी बुद्धि की प्रशंसा की। साथ आती, सामने रहती तो न जाने क्या होता। सामने होती तो शायद अभिमन्यु इतना फ्री नहीं होता।
अंत में इन लोगों ने उम्मीद छोड़ दी।
मान गए कि बीबी का गुलाम हो गया है।

इसके बाद समस्या उठी पूर्णिमादेवी को लेकर। गुस्सा होकर लड़की के घर चली गईं थीं लेकिन अब तंग आ चुकी थीं। उधर जबर्दस्त जिद सवार थी।
तंग दोनों पक्ष ही थे।
छोटी बहन ने आकर अभिमन्यु से कहा, "तुझे चाहिए मां को मना समझाकर अपने साथ ले जाना।"
भौंहें सिकोड़कर अभिमन्यु बोला, "मना समझाकर? क्यों?"

"तू जानता नहीं है कि मां अभिमानवश चली आई थीं?''
"ऐसा भी तो हो सकता है इस बात से मैं भी अभिमानाहत हुआ बैठा हूँ।"
"बक मत। तू गुस्सा होने की हिम्मत कर सकता है? सोच रही थी तू छोटी बहू के साथ मेरे घर आयेगा।"
"अजीब बातें हैं। मां तो छोटी बेटी के घर पर बड़े मजे से हैं।"

छोटी दीदी को चिंता हुई।
इनका इरादा क्या है?
बूढ़ी मां को उसके कंधे पर लादना चाहता है क्या? हो भी सकता है। बहू अगर हवा में उड़े, मां को पास रखने में झंझट तो है ही। न बाबा, इसी वक्त प्रतिकार करना जरूरी है।
दूसरा रास्ता पकड़ा।
"मजे से रहने से क्या होता है, मन तो छोटे बेटे के लिए रोया करता है।" 
"ओ, ऐसा! तुम्हारे पास तो अंतर्दृष्टि है।"
इसके बाद बात नहीं हुई। अभिमन्यु मां के पास तक नहीं फटका लेकिन मोटर पर बैठते-बैठते, अभिमत्यु ने सबको आश्चर्यचकित करके कहा, "मां आओ।"
जैसे उसी के साथ आई थीं मां। कहना न पड़ेगा, बेझिझक पूर्णिमा भी कार पर जा बैठी।

और घर आकर?
घर आने के दो दिन बाद ही पूर्णिमा ने आविष्कार किया कि तबीयत खराब होने का सही कारण है।
खुशी से उल्लासित हुईं पूर्णिमा।
भावी पौत्र का मुंह देखने की खुशी जितनी न हुई, मंजरी के पर टूटे, सोचकर ज्यादा हुई। लो, अब करो जो मर्जी सो। अब और नहीं चलेगा।
इंसानों के सृष्टिकर्ता ने स्त्री जाति के वश में रखने का जो अद्भुत कौशल आविष्कृत किया है, पुरुष उसका हमेशा से ही फायदा उठाता आया है।
औरतें तक औरतों को छोड़ती नहीं हैं।

विजयभूषण आरामकुर्सी पर पैर फैलाकर पांव नचाते हुए बोले, "सुनीति! तुम लोगों ने ही अपनी बिरादरी को पहचाना है।"
सुनीति तकिए पर गिलाफ चढ़ा रही थी, हाथ का काम रोककर पूछा, "मतलब?"
"माने तुमने कहा ही था। तुम्हारी बहन फिर फिल्मों में काम करना चाहती है।"
"ऐसी बात कही है? किससे कहा है उसने?''
"और किसे? मुझे।"
"तुम्हे?'' सुनीति ने शक की नजर से देखा, "तुम उसे मिले कब?'' 
"है रहस्य! अगर कोई मिलने की कोशिश करे तो एकांत का अभाव कहां है?" विजयभूषण हंसते हुए बोले।
"हुं। ये बात नहीं। मुझमें इतना साहस कहां है कि तुम्हारे अनजाने में साली संग सुख का आस्वादन करने जाऊं? चिट्ठी लिखी है जी, चिट्ठी लिखी है।" 
"चिट्ठी? अरे! चिट्ठी कब आई? मैंने तो नहीं देखी।
"दफ्तर के पते पर लिखी है। शायद सोचा होगा कि तुम्हें पता नहीं चल सकेगा।"
"नखरा! देखूं तो जरा।"
विजयभूषण जेब में हाथ डालकर करुण स्वर में बोले, "दे दूं? जिंदगी का पहला पराई स्त्री का पत्र अपनी पत्नी को दे दूं?''
"तो फिर रखो। हृदय के बक्स में बंद करके रख दो।" कहकर सुनीति गुस्सा दिखाते हुए एक छोटी सी तकिया का गिलाफ एक बड़ी सी तकिया पर चढ़ाने लगी। ठहाका मारकर हंसने लगे विजयभूषण।

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