नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
जाना ही पड़ेगा।
बड़े भाई छोटे भाई को प्यार से अनुरोध कर गये हैं "बहुत दिनों से साथ खाया
नहीं है" कहकर। इस निमंत्रण की उपेक्षा नहीं कर सकता था। लेकिन मंजरी बिदक
गयी।
बोली, "तुम जाओ, मैं नहीं जाऊंगी।"
"न जाने का कारण क्या दर्शाऊंगा?"
"कहना तबीयत खराब है।"
"कोई विश्वास नहीं करेगा।"
"सो तो है ही।" मंजरी तीक्ष्ण स्वरों में बोली, "तुम्हारे रिश्तेदारों से तो
मुझे यहीं मिलना है। खैर, आज विश्वास न करना चाहें न करें, भविष्य में कर
सकते हैं।"
अभिमन्यु ठिठककर बोला, "मतबल?"
"मतलब नहीं?"
"नहीं।"
अभिमन्यु ने एक बार उसकी तरफ देखा। सच में, बहुत ही ज्यादा थकी और क्लांत
करुण लगी मंजरी। उतरा चेहरा, फीका रंग, आँखें छलछलाई हुई। आँखों के नीचे
कालिख। बड़ी ममता जागी। कितने दिनों से उसने मंजरी की तरफ ठीक से देखा नहीं
है?
संदिग्धभाव से पूछा, "तुम्हारा चेहरा तो बड़ा खराब लग रहा है। क्या हुआ है?"
अभिमानिनी को डर लगा कहीं प्रिय के स्नेह स्पर्श की हवा से पत्ते की नोक में
इकट्ठा शिशिरकण ने झरना शुरू कर दें। वह बड़े शर्म की बात होगी। इससे तो हंसने
लगने में भलाई है।
भले ही वह हंसी अस्वाभाविक हो।
"होना क्या है?"
"तो इतनी क्लांत क्यों लग रही हो?"
"जान-बूझकर अपनी तबीयत को खराब शो कर रही हूं अभिनेत्री हूं न?"
अभिमन्यु ने अपलक दृष्टि से एक बार उसके अस्वाभाविक हंसते चेहरे को देखकर
शांत भाव से कहा, "क्या पता? पर जाने पर मंझले भइया भाभी बड़े दुःखी होंगे।"
"तुम तो जा रहे हो।''
"मैं तो आधा हूं।" अभिमन्यु प्यारी सी हंसी हंसा।
"तुम तो अकेले ही सौ के बराबर हो।" मंजरी ने उससे अधिक प्यारी हंसी हंसकर
कहा।
"सचमुच नहीं जाओगी?''
"नहीं जी, अच्छा नहीं लग रहा है।"
"मुझे भी अच्छा नहीं लगेगा।"
"आहा।"
"आहा माने? मझली भाभी के हाथ का नया पुलाव खाऊंगा और आँखों से आँसू झरेंगे।"
अपने स्वाभाविक ढंग की हंसी हंस उठी मंजरी-बहुत दिनों पहले जैसी। हंसते हुए
बोली, "वह झर सकते हैं। सारे मसालों का राजा है मिर्च-मझली दीदी इस थ्योरी पर
विश्वास करती हैं।"
"तब फिर घर में अपने लिए अच्छा खाना बनवाओ।"
"तुम भी क्या कह रहे हो?"
"क्यों इसमें गलत क्या कहा है? अपने प्रति उदासीनता अब पुरानी बात हो गयी
है।"
"मैं खाने के प्रति उदासीन नहीं हूं। रोज ही तो कितना कुछ खा रही हूं
न?"
"खाती नहीं हो न?"
अभिमन्यु ने फिर एक बार संदिग्ध दृष्टि डालकर कहा, "मुझसे नाराज होकर खाना
छोड़ा है न?"
"हां छोड़ा है। अब फालतू बातें करना छोड़कर नहाने जाओ। देर होगी तो मझली भाभी
से डांट खाओगे।"
"बचपन से इसे खाकर ही तो बड़ा हुआ हूं।" कहता हुआ सीटी बजाता अभिमन्यु नहाने
चला गया।
उसके नहाने का शोर बाहर से सुनाई पड़ रहा था।
चिरकाल के निर्मल आकाश पर कभी-कभी गलत समझने का कोहरा छा जाता है तो कभी सहज
बातों और सहज हंसी से सूर्योदय हो जाता है।
वहां जाकर अभिमन्यु ने देखा भीड़ इकट्ठा हुई है। दोनों दीदियां आई हैं, मां आई
हैं। बड़ी भाभी भी बड़े भइया को घर पर छोड़कर आई थीं। कहने का मतलब ये कि मझली
बहू ने मोटी रकम खर्च कर डाली थी।
उपलक्ष?
उपलक्ष कुछ नहीं-यूं ही।
पर अभिमन्यु हमेशा का शरारती है इसीलिए आविष्कार कर बैठा इसमें अंतर्निहित
उपलक्ष को-अभिमन्यु पर मुकदमा। लेकिन इन्हें बड़ी चोट पहुंची जब अपराध का
डक्यूमेंट साथ नहीं दिखाई पड़ा। तभी तो मजा आता।
"छोटी बहू नहीं आई?"
"ओ मां! क्यों?''
"क्यों?''
"तबीयत खराब है?"
"कहां, कल तो कुछ सुना नहीं था।"
"अचानक ऐसी क्या बात हो गई कि एक बार आ न सकी?"
एक दर्जन प्रश्न पूछने वाले, उत्तरदाता एक अभिमन्यु।
हर एक के सवाल में अविश्वास का स्वर था। हर एक के चेहरे पर आशाभंग की ग्लानि
थी।
आशाभंग का दुःख समाप्त हुआ तो असली काम शुरू हुआ।
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