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नारी विमर्श >> चश्में बदल जाते हैं

चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6385
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।


'हाँ बारह साल के आसपास।...मेरे गुणधर दामाद, सुना है कि शादी के वक्त ही से फ्राक पहनी साली को प्रेमभरी नजरों से देखते आ रहे हैं। और बाद में-दुनिया भर के उल्टे-सीधे बहाने बनाकर डिवोर्स देने के पीछे कारण यही सर्वनाशी ही है।'
सोमप्रकाश को लगा वे गहरे पानी के नीचे डूबते चले जा रहे हैं-'नरोत्तम, आज क्या तू नशा करके आया है? क्या बक रहा है?'
'अरे ओ सोमा, आज नहीं किया है पर इसके बाद शायद यही करना पड़ेगा। क्रमश: हम 'मनुष्य' शब्द का मतलब ही भूलते जा रहे हैं। क्या तू सोच सकता, मेरी यही छोटी लड़की जो उस आदमी को' केंचुए जोंक की तरह घृणा करती थी और मझली दीदी के दुःख से मरा करती थी अब वही लड़की कह रही है कि गलती असल में मझली दीदी की ही थी। मानसदा जैसा आदमी मिलना मुश्किल है।' अब बता, सोच सकता है तू? कब कौन किस रंगीन चश्मे से देखता है..कहना मुश्किल है।'
इतने ताजा स्वभाव के नरोत्तम सरकार, कन्धे लटकाकर चले गये। उनको जाते देखकर सोमप्रकाश को लगा-अब वह कभी नहीं आयेगा।
सोमप्रकाश का सोचना गलत नहीं था। सचमुच नरोत्तम फिर नहीं आये। कितने दिन बीत गये, नरोत्तम को फिर किसी ने इस घर का चौखट लाँघते नहीं देखा।
पर इससे क्या फर्क पड़ता है? जब पाँव फिसलकर गिर जाने से घुटना टूट गया था तब भी तो बहुत दिनों तक नहीं आये थे। अभी भी नहीं आ रहे हैं। पर नित्यनियम वाले तो ठीक आ रहे हैं-रात के बाद दिन आ रहा है, सुबह के बाद दोपहर शाम सन्ध्या आ रही है। रात, और पुन: सवेरा संसार में किसी तरह का छन्द पतन तो हुआ नहीं है।
महाराज कुलदीप मिसिर भोर को ही नहाकर 'भाईजी' का पूजाघर साफ करके, पोंछा लगाकर, हाथ धोकर छत की बगिया से फूल तुलसी तोड़कर रख देता है, पेड़ों में पानी डालता है, पूजा के बर्तनों को चमकाकर माँजता है। इसके बाद रसोईघर में आता है।...उधर अवनी नित्य नियम से खिड़की दरवाजे झाड़ता है। हर हफ्ते पूरे घर के अदृश्य जालों को तोड़ता है। बाबू के कपड़े साबुन लगाकर धोता है, कपड़ों में माड़ डालता है, लोहा करके रख देता है। धोतियों को निश्चित दिन जाकर लांड्री में दे आता है, ले आता है। 'मौसी जी' की साड़ियों के बारे में पूछता है।
यथानियम बाजार जाता है, मछली काटकर रसोईघर में दे आता है और बाकी वक्त खुद साफ-सुथरे शर्ट-पैजामे में लैस होकर घर के दरवाजे पर खड़ा रहता है। ये उसका पहरा देने का वक्त है।
मोहनी की माँ भी अपना काम नित्य नियम से करती जा रही है। घर के लोगों के नहाने-खाने के समय में भी कुछ खास परिवर्तन नहीं हुआ है।-इस अटूट छन्द के बीच किसे याद रहता है कि कब कौन नहीं आ रहा है या बार-बार नहीं आ रहा है। और अगर याद आता भी है तो मुँह से कहता नहीं है। फिर भी एक दिन सुकुमारी ने बात छेड़ी।
सोमप्रकाश के पास जाकर डरते-डरते बोलीं-'क्यों जी, मैं तुम्हारे दोस्त के रोज-रोज आने का मजाक उड़ाती थी यह बात क्या तुमने उनसे कह दी थी?'
अवाक हुए सोमप्रकाश-'मैं? मैं क्यों कहूँगा? अचानक ऐसे क्यों पूछ रही हो?' 
'न माने...देख रही थी न कि इन दिनों आ नहीं रहे हैं। फिर मोहल्ला छोड़कर चले भी गये, एक बार मिलने भी आये...'
मोहल्ला छोड़कर चला गया? सोमप्रकाश क्या बंगला भाषा भूल गये? इस बात का अर्थ क्यों नहीं समझ सके?
सुकुमारी ने बात को दोहराते हुए कहा-'चले गये हैं। मोहल्ला छोड़कर चले गये हैं। सुकुमारी अर्थ समझाने लगीं-अवनी अपनी आँखों से देख आया था।
उनकी कही बातों का सारार्थ यही था कि घर किराए पर देकर हावड़ा या कहीं और चले गये हैं नरोत्तम।...बड़ी लड़की जहाँ नौकरी करती थी, उसी स्कूल ने एक बहुत बड़ी बिल्डिंग बनाई है और उसी के पास टीचर्स क्वॉर्टर बनाया है-उसी में से बड़ी लड़की को एक क्वॉर्टर मिला है। वहीं कल शाम को मझली लड़की के साथ चले गए हैं। उसे भी वहीं कोई क्लर्की का काम मिल गया है।
और छोटी लड़की?
ओ माँ! सोमप्रकाश क्या कोई खबर नहीं जानते हैं? वह लड़की तो न जाने कब किसी से दोस्ती और प्रेम कर, रजिस्ट्री शादी करके दुर्गापुर चली गई है। आगे कहने लगीं सुकुमारी-'सुना है किराएदार बंगाली नहीं है। इस मोहल्ले में पहला गैरबंगाली परिवार घुसा। पता नहीं बाबा, आगे और क्या-क्या देखना पडे।'
अब शायद बंगला भाषा दिमाग में घुसी सोमप्रकाश के। बोले अनमने भाव से-'घुसे हैं तो क्या हुआ?'
इसके भी बहुत दिनों बाद फिर एक बार सोमप्रकाश को कहते सुना गया-'गैर बंगाली हैं तो क्या हुआ?' यह किस मौके पर?
वह तो इस मकान की मिल्कियत बदलने की बात पर बोले थे।

पर उस दिन सोमप्रकाश का मन बार-बार यही कहता रहा-'चला गया? मोहल्ला छोड़कर चला गया?'
उसी समय दूसरे मोहल्ले से आ धमकी सुनेत्रा। पुरानी बातों को भुलाकर, अकेली ही चली आई थी। याद नहीं आया कि इसी 'अकेले' आने के प्रसंग पर बाप को कितनी बातें सुनाई थीं। आकर बेझिझक कह भी सकी-'तुमसे एक सीक्रेट बात करनी है पिताजी इसीलिए बिना किसी से बताये चली आई हूँ। घर में कह आई हूँ 'काली मंदिर' जा रही हूँ...'
'क्यों? यह सब झूठ बोलने की क्या जरूरत थी?'
'तो क्या करती? यहाँ आ रही हूँ सुनेंगे तो हजारों कैफ़ियत माँगेंगे-हजारों सवाल पूछेंगे। माँ से भी नहीं बताया है क्यों आई हूँ। सिर्फ कहा कि बहुत दिनों से तुमलोगों को देखा नहीं था, याद आ रही थी। तो पिताजी, तुमको थोड़ा समय देना होगा मुझे। और मन लगाकर सारी बातें सुननी होगी।...माँ इस समय मेरे लिए नाश्ता बनाने में व्यस्त है-अभी तुम सुन लो।'
लड़की भाइयों की तरह सोमप्रकाश को आप नहीं कहती है।
खैर सोमप्रकाश से मन लगाकर सारी बातें सुनीं। फिर पूछा-'इस मोहल्ले में जमीन मकान के दाम बहुत बढ़ गये हैं, ये बात तुझे किसने बताई?'
'वाह! यह बात तो तुम्हारे दामाद ही रात-दिन कह रहे हैं-ओमू बीमू तो हर समय ही कहते हैं। कहते हैं, तुम्हारे उस समय का जमीन समेत बनाया मकान सिर्फ अस्सी हजार का था और आज इसकी क़ीमत तेरह-चौदह लाख है।'
सोमप्रकाश ज़रा हँसे। बोले-'शायद इससे भी ज्यादा। कभी-कभी लगता है इन्सान एक छटाँक भर जमीन के लिए ही पागल हुआ जा रहा है। खैर...फिर? तुझे असल में कहना क्या है?'
सुनेत्रा लज्जित हँसी हँसकर बोली-'पूछो मत पिताजी! तुम्हारे नाती जी को अब शौक़ हुआ है, अपने किसी दोस्त के साथ मिलकर डॉक्यूमेन्ट्री फिल्म बनाएगा। खुद ही वह लोग सब करेंगे-लेखक, परिचालक, आर्टिस्ट, प्रोड्यूसर। पर शुरु में लाख तीन लाख रुपया हाथ में रखे बगैर शुरु नहीं कर सकेगा न?'
इसके बाद और अधिक चेहरे पर लज्जाभाव लाकर बोली-'इसे लेकर इतना पगला गया है लड़का, पिताजी कि...। माँ का दिल है न? देखकर लगता है आसमान की तरह हाथ बढ़ाकर रुपया तोड़कर उसे दे दूँ...'
सोमप्रकाश हँसे-'यह सच है। माँ का दिल!...हाथ आसमान तक लम्बा किया जा सकता तो अच्छा ही हो सकता है-है न? तो अब सिनेमा को लेकर परहेज नहीं है तुझे?'
'ओ:, तुम उस बात का मजाक बना रहे हो? तब वही पुरानी मानसिकता थी...आँखें भी वैसा ही देखती थीं। आज देख रही हूँ इसमें कोई बुराई, निन्दा, अपयश नहीं है बल्कि है जय-जयकार। इसीलिए...'
इसके मतलब हुए सुनेत्रा का चश्मा जमीन आसमान बदल गया है।
हाँ। और इसीलिए सुनेत्रा अब आकाश की ओर हाथ बढ़ा रही है, अपने बेटे की इच्छापूर्ति के लिए प्रयास कर रही है।
सोमप्रकाश के इस घर के कुछ हिस्से की हक़दार सुनेत्रा भी तो है? कुछ क्यों, तीन हिस्से का एक हिस्सा...अब लड़के-लड़की का भेदभाव तो है नहीं। खैर, इस समय सुनेत्रा का प्रस्ताव था कि बाद में वह अपने हिस्से की रकम छोड़ देगी, ऐसा वह अभी लिखकर देने को तैयार है। और पिताजी अभी उसे कानूनन जो मिलना है वह दे दें।
'पर दुहाई है पिताजी! तुम्हारा दामाद न जान पाए। उदय ने कहा है, बाद में इसी रुपये को वह पाँच गुना बढ़ा डालेगा। तब...और पिताजी उसमें जो प्रतिभा है न...वह ऐसा जरूर कर सकेगा।'

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