नारी विमर्श >> चश्में बदल जाते हैं चश्में बदल जाते हैंआशापूर्णा देवी
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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।
सो की थी भेंट उदयभानु बागची नाम के लड़के ने। जो वर्तमान में केवल 'कुमार
उदय' है।
नहीं, कुमार भानु नहीं रखा था। इसमें 'अनुकरण' करने जैसा छाप है। लेकिन अभी
भी बम्बई में उसके कर्णजगत में 'कुमार उदय' नाम बहुत प्रचारित नहीं हुआ है।
अभी भी परिचितों के बीच उदय बागची ही उसकी पहचान है अथवा उदय।
उसे पूरी उम्मीद है कि लोग ज्यादा दिनों तक ऐसा नहीं कहेंगे। नए एक उज्ज्वल
नाम का उदय होगा ही इस रुपहले माया जगत के चलचित्र पर। गूँगे बहरे के पार्ट
ने काफी तहलका मचा दिया था। चेहरे ने भी साथ दिया था।
सुना था कि और कई फिल्मों के लिए अनुबन्धित है। पहले सुकुमारी से भेंट हुई।
सुकुमारी लगभग छिटक कर उछल पड़ी। चिल्ला पड़ी-'अरे बाप रे! तू तो इन दो ढाई
सालों में एकदम ही 'लायक' हो गया है ताक्डुमाडुम।...ओ माँ, और भी ज्यादा गोरा
हो गया है लम्बा भी और हो गया है। और साज-पोशाक? अब क्या कहकर बुलाऊँ तुझे?
नवाब बहादुर? अलाउद्दीन खिलजी? टीपू सुल्तान? या कि...'
उदय ने अपनी छोटे साइज की दिद्मा को फट से दोनों हाथों से ऊपर उठा लिया और एक
चक्कर काटकर बोला-'इतना सब-कुछ बुलाने की जरूरत नहीं है। सिर्फ ताक्डुमाडुम।'
बहुत दिनों बाद इस घर में खुशी की लहर दौड़ गई। सुकुमारी बोलीं-'तो क्यों रे,
चेहरा तो मारकटारी (यह नाती की ही भाषा है)-कोई हिरोइन-वीरोइन तो नहीं जुटा
बैठा है?'
इस बार उदयभानु खुद ही एक चक्कर काटकर-बोला-'राम भजो। तुम्हारा नाती क्या
इतना मूर्ख है? अभी गड्ढे में जा गिरेगा? यह सब बातें छोड़ो। यह बताओ कैसी हो?
आजकल तो ठाट हैं-सिर्फ बूढ़ा-बूढी-दोनों आमने-सामने, सुख सागर में गोते लगाते
हुए...'
'चुप हो जा। सुख सागर में डुबकी ही तो लगा रहे हैं। घर का हाल जानता
है?'
'जाना है मदर से। लो कह रहा हूँ 'दुःख से गहन दुःखी' पर भई मुझे तो कहीं कुछ
दुःख-वुःख नजर नहीं आ रहा है। मैं ही जब घर छोड़कर भाग गया था, ऐसा लगा था,
जाने कौन-सा महापाप कर रहा हूँ। शायद मातृघाती हो जाऊँगा। हूँ कुछ नहीं। आकर
देखा...पहले से ज्यादा ही धूमधड़क्का है। बहनें तीनों तो-सच दिला, उनके लिए
जो मामूली सी बम्बईमार्का चीजें उपहारस्वरूप ले आया हूँ-उन्हें पाकर ऐसा करने
लगीं जैसे राज्य ही पा गई हैं। कितने थोड़े से सन्तुष्ट हो गईं बेचारियाँ।
इसीलिए तो संकल्प किया था कि बहुत रुपया कमाऊँगा, खूब तड़क-भड़कदार जिन्दगी
होगी। दोनों हाथों से सबको उपहार दूँगा...पिताजी की कंजूसी देखते-देखते...'
कहते-कहते रुककर हँसने लगा।
सुकुमारी भी हँसकर बोलीं-'तो बहनों को बम्बईमार्का साड़ी-ब्लाउज गहने उपहार
देने के लिए ले आया और इस दिद्मा के लिए?'
'दिद्मा के लिए?' अपने स्टाइल से कन्धे झटक कर बोला- 'तुम्हारे लिए? ये एक
बम्बईमार्का नया लवर लाया हूँ न। बूढ़े की तरफ देखने की इच्छा ही न
होगी।'
'ठहर जा तो यार मेरे। इसीलिए तो तेरे मामदू ने तेरा नाम शेखचिल्ली रखा है।
चल, देखें, शायद नहाकर निकाल आए हैं।'
तभी अवनी ने आकर बताया-'हाँ नहा चुके हैं। भइया जी को बुला रहे हैं।'
भइया जी उल्लसित होकर ठीक बचपन की तरह अवनी के गले से लिपट कर बोला-'अरे अवनी
भइया, अभी भी तुम हो न? गुड गुड। डर लग रहा था कि इतने दिनों के बाद जाकर
टूटा-फूटा कुछ देखने को न मिले। महाराज जी हैं न?'
'हूँ।'
'थैंक्यू।'
अवनी गम्मीर भाव से बोला-'भइया जी, घर तो टूट-फूट गया ही है।'
'जानता हूँ। टूटे पर तुम दोनों और इन दोनों का रहना ही काफी है। मैं जानूँगा
कि मेरा ननिहाल सही सलामत है। वही तब, जब कहता था, ताई ताई ताई, मामा के घर
जाई...'
'तुम्हारे तो मामा लोग ही...'
'मुझे उसकी कोई परवाह नहीं। जिसका जहाँ जी चाहे जाए। तुमलोग रहो-बस।'
पहली मुलाकात के उल्लास के बाद उदयभानु 'अब तो जाना होगा' कहने के बाद ही
अचानक बोला- 'मामदू। अपने 'स्मॉल' मुँह से एक 'बिग' बात बोलूँ?' सोमप्रकाश
उसकी तरफ देखकर बोले-'इसमें नई बात क्या है? हमेशा से ही बिग बिग बातें करने
की आदत है तुझे।'
सिर खुजलाते हुए, दोनों कानों को पकड़ने के बाद वह बोला-'नहीं...मानें, कह रहा
था। तुम्हारे 'उसी' के बल पर ही तो लक्ष्य-पथ पर बढ़ सका था। तो अब जेब में
कुछ आया है...'
'तो? वापस लौटाना चाहता है?' हँस दिए सोमप्रकाश-'पहले से ही थप्पड़ खाने का
रास्ता बन्द करके बातें कर रहा है-वरना...'
'माफ कर दो मामदू। इस उल्लू को माफ कर दो।' कहकर सोमप्रकाश के पैरों पर सिर
रख दिया।
सोमप्रकाश ने दोनों हाथों से उसे उठाकर कहा-'तुमको माफ कर सकूँ वह स्किल अब
नहीं है रे ताक्डुमाडुम। पर हाँ 'रिजेक्टेड' होकर वापस नहीं लौटा है, इसी से
मेरा सारा कर्जा उतर गया।'
'मामदू-तो तुम मेरे इस काम को नापसन्द नहीं कर रहे हो न?'
उसी तरह से धीरे-धीरे सोमप्रकाश बोले-'मैं किस मुँह से नापसन्द करूँगा?
शिल्प-टिल्प से नाता रिश्ताविहीन एक मामूली क्लर्क। पर हाँ, जीवन की अभिज्ञता
के आधार पर इतना जरूर कह सकता हूँ कि कोई भी शिल्प अवज्ञा की वस्तु नहीं है,
अमर्यादा की भी नहीं। सभी शिल्प की सफलता में आनन्द है, गौरव है। पर इतना
जरूर हमेशा याद रखना चाहिए कि सबसे महान शिल्पकला की देन है मनुष्य का यह
जीवन। वहाँ सफलता ला सके तो...'
कहते-कहते ठहर गए। लज्जित हुए। हँसकर बोले-'देख रहा है न, ज़रा सा मौक़ा मिला
नहीं कि एक हाथ 'उपदेश' झाडू दिया। बुढ़ापे का धर्म है भइया।' कहकर चश्मा
उतारकर धोती के किनारे से रगड़-रगड़कर पोंछने लगे। बार-बार चश्मा रगड़ना-ये भी
क्या बुढ़ापे का धर्म है?
लड़के के चले जाने के बाद सुकुमारी खुशी से उत्तेजित होकर बहुत कुछ कहती रहीं
पर सोमप्रकाश के मन तक वह बातें पहुँच नहीं रही थीं। उस समय सोमप्रकाश सोच
रहे थे इस लड़के को दस हजार देने की खबर सुनकर उनके बेटे कितना आग-बबूला हो
उठे थे। खूब सावधानी बरतने पर भी खबर छिपी नहीं। खुल गई थी सुनेत्रा के
उछलकूद करने से। पिता होकर उसके साथ दुश्मनी करने का निर्मम दृष्टान्त पेश
करते हुए वह भाइयों के सामने रो पड़ी थी।
हालाँकि उन दोनों का वक्तव्य यही था कि सोमप्रकाश का रुपया है सोमप्रकाश जैसे
चाहें खर्च करें, चाहें तो रास्ते में बिखेर दें। लेकिन दीदी के लड़के का सिर
चबाना बहुत ही घटिया हरकत है। जैसे उनकी दीदी सोमप्रकाश की कोई नहीं है। उनकी
ही सगी है। पर सबसे ज्यादा आज याद आ रही है छोटे बेटे की कही बात। उसने अपने
स्टाइल से शब्दों को चबाते हुए कहा था-'आपके पास जो रास्ते में बिखेरने के
लिए इतना रुपया है यह मुझे मालूम न था। कितनी बार, कितनी 'असुविधा में पड़कर
भी मुँह खोलकर कहते नहीं बना है...'
चौंक कर सोमप्रकाश ने कहा था-'कितनी बार असुविधा में पड़कर भी? मुझसे कह नहीं
सके हो?'
'कह तो सका ही नहीं कभी। यही फ्लैट का आखिरी 'इन्स्टॉलमेंट' देते वक्त बुरी
तरह से फँस गया था। पर मुझे कैसे मालूम होगा कि आप चाहें तो दे सकते थे।'
धीरे से सोमप्रकाश बोले-'एक बार बताकर तो देखो होता।' पर यह न कह सके कि मैं
कैसे जानूँगा कि फँस भी सकते हो। हमेशा से ही बाप के होटल में खाते-खाते चले
आ रहे हो। जबकि सुना है कि कमाई भी अच्छी-ख़ासी है।...पर ऐसी बातें कही नहीं
जाती हैं।
अब सोच रहे थे कि अगर वे सुनें कि उदय रुपया देने आया था सोमप्रकाश ने लिया
नहीं है...
सुनेंगे ही। चाहे कितना भी 'गुप्त' क्यों न रखो खबर दबती नहीं है। खबर हवा के
साथ फैलती है। क्या पता, सरल, खुले मन का लड़का, खुद ही माँ-बाप से कह
बैठे-'मामदू इज़ ए ग्रेट मैन। समझे न, तुम लोग वन पाइस फादर मदर...और मामदू
का...'
ऐसे ही बोलता है वह। सोमप्रकाश अनुभव करते थे कि बाप की वन पाइस फादर मदर
वाली कृपणता उसे दुःख पहुँचाती थी।
सुकुमारी बोल उठीं-'किसी दिन क्या ध्यान से मेरी बात सुनी है तुमने? बात कुछ
कह रही हूँ और उत्तर कुछ दे रहे हो। मेरी बात की कद्र तुम्हारी नज़र में यही
है। अभी प्राणप्रिय नरोत्तम आ जाएँ तो मन प्राण कान सब चौकन्ने हो जाएँगे।'
सोमप्रकाश आवाज़ करके हँसने लगे। बोले-'नरोत्तम से तुम सौतों जैसी हिंसा करती
हो।'
'तुम्हारा जैसा व्यवहार है...क्या करूँ?'
आते हैं नरोत्तम। पैर का दर्द सम्पूर्ण रूप से ठीक न होने पर भी खुशी-खुशी
आया करते हैं। लेकिन आज?
आज आते ही धम्म से बैठकर बोले-'देख सोमा, शुरु-शुरु में सोचता था, तू घर में
बन्द पड़ा रहता है। सच मान, ममतावश तेरे लिए ही यहाँ आता था। अचानक देख रहा
हूँ-नः। अपने लिए ही आता हूँ। मन की बातें सुनाने के लिए एक आदमी की ज़रूरत
होती है-समझा न? एक ऐसा आदमी, जो मेरी बात के बीच में ही बहाना बनाकर उठकर
चला नहीं जायेगा, मेरी बातों को इस कान से सुनकर उस कान से निकालेगा
नहीं-माने कि कानों में घुसाएगा।'
सोमप्रकाश बोले-'तो इतने दिनों बाद तुझे पत्नी का अभाव महसूस होने लगा है?
हाँ, यही एक प्राणी पुरुष के जीवन में होता है जो उसकी सारी बातें ध्यान से
सुनता है। और सुनकर जी-जान से उसे मानने को बाध्य होता है। परन्तु हम पुरुष
लोग उसे उचित मर्यादा कहाँ देते हैं?'
नरोत्तम बोले-'अचानक ऐसी नाटकीय बातें?'
'यही देखो न, अभी अभिमान करके चली गईं। कह गईं, तेरी बात मैं मन लगाकर सुनता
हूँ लेकिन उनकी बात रत्ती भर भी मन लगाकर नहीं सुनता हूँ। तुझसे सौत की तरह
ईर्ष्या करती हैं।'
कहकर हँसने लगे। दोनों ही। और सबसे ज़ोरदार हँसी नरोत्तम की ही थी। फिर भी आज
नरोत्तम के मन में सुख नहीं था। अचानक बोल उठे-'देख सोमा, हमारी धारणाएँ कैसी
अचानक बदल जाती हैं। अभी कुछ दिन पहले ही तेरे दोनों बेटों की बेईमानी देखकर
अपने आप को भाग्यवान समझ रहा था। सुखी सोच रहा था कि चलो मेरे लड़के नहीं हैं
अच्छा ही है। शैतान गाय से खाली गौशाला भली। तिरंगी तीन बेटियों के साथ मैं
साला मजे में हूँ।'
'तिरंगी?' सोमप्रकाश अवाक हुआ-'तिरंगी मतलब?'
'अरे वही, एक विधवा, एक डिवोर्सी और एक कुंवारी।...और उसने तो घोषणा कर रखा
था कि चिरकुंवारी रहेगी। इसीलिए सोचता था कि जीवन इसी तरह से चलता चला
जाएगा।...सो अचानक...', कहकर उन्होंने सुंघनी की डिबिया जेब से निकाल ली।
'क्या हुआ अचानक?' पूछा सोमप्रकाश ने।
नरोत्तम सुंघनी का चूरा झाड़ते हुए बोले-'कुछ दिनों से मन में सन्देह हो रहा
था कि लौंडिया के हाव-भाव 'लव' हो जाने जैसे हैं।...हँसी भी आती थी सोचकर।
सोचता, वक्त पर न होकर, बेवक्त। तो ठीक है, शादी की इच्छा हुई है तो अच्छी
बात है। धूमधाम से शादी कर दूँगा।...सचमुच सीमा, इन दोनों लड़कियों की शादी
हुई थी जब हमारी ज्वाइंट फैमिली थी। जी भरकर धूमधाम न कर सका था। दूसरों की
आँखों में खटकने का डर था।...तो सोचा इस बार...', कहकर नरोत्तम ने फिर सुंघनी
की डिबिया निकाल ली।
सोमप्रकाश बोले- 'इस बार बाधा किस बात की है? अब किसके ओंखों में खटकेगा?
लड़की की दीदियों की आँखों में क्या ?'
सुंघनी का चूरा नाक में न डालकर गलती से हाथ झाड़ डाला नरोत्तम ने। बोले-'ऐसा
हुआ होता तो भी अच्छा होता। स्वाभाविक बात होती। लेकिन सुनेगा भी तो क्या
विश्वास करेगा?...छोटी लड़की के प्रेमी हैं हमारे ही महापाजी हरामी मझले
दामाद।'
'एँ।' खाट के किनारे बैठे सोमप्रकाश खाट पर से गिरते-गिरते बचे। सँभलकर बैठते
हुए बोले-'ये 'तू क्या कह रहा है?'
'और क्या कह रहा हूँ फिर? अभी कुछ दिन पहले भी तुझ पर करुणा करते हुए अपने
आपको भाग्यवान समझ रहा था और आज लग रहा है मुझसे बड़ा अभागा दुनिया में कोई न
होगा। शौक़ीन मनपसन्द निमन्त्रण पत्र छापूँगा सोचकर जितने निमन्त्रण पत्र आते
थे उन्हें इकट्ठा कर रहा था। सोचता था छोटी लड़की की शादी में इनमें से एक
छपवाऊँगा। लेकिन ऐसा कैसे कर सकूँगा? दामाद का नामधाम वंश लिखना पड़ेगा न? सच
सोचा, जी कर रहा है सब कुछ छोड़छाड़ कर कहीं चला जाऊँ।'
थोड़ी देर चुप रहकर सोमप्रकाश ने पूछा-'ऐसी बात हुई कैसे? उम्र का भी तो काफी
फर्क है।'
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