नारी विमर्श >> चश्में बदल जाते हैं चश्में बदल जाते हैंआशापूर्णा देवी
|
2 पाठकों को प्रिय 424 पाठक हैं |
बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।
सोमप्रकाश आहिस्ता-आहिस्ता बोले-'वह तो समझा...लेकिन अभी मैं इतने सारे रुपये
पाऊँ कहीं से? मकान-जमीन जैसी चीजें जब तक बिकती नहीं हैं तब तक तो बिना फसल
वाली जमीन ही है।'
ज़रा नखरे करके सुनेत्रा बोली-'तुम्हारे पास क्या इतना रुपया नहीं है?'
'क्या कहती है तू? तीन-चार लाख क्या घर में गाड़ रखा है? मकान बेचे बगैर...'
सहसा जोर डालते हुए सुनेत्रा बोल उठी-'तो यही करना तो बुद्धिमानों जैसा काम
होगा पिताजी। ओमू बीमू भी तो यही कहते हैं। सब कुछ अव्यवस्थित करके चले जाने
से तो अच्छा है कि समय रहते सारा ठीक-ठीक इन्तजाम कर डालना। मकान बेचकर जिसे
जो मिलना है वह दे दो। और अपने दोनों की बाकी जिन्दगी की एक व्यवस्था...'
सहसा सोमप्रकाश वज्रकण्ठ से बोल उठे-'वही करूँगा।' बाप के कण्ठ स्वर से
सुनेत्रा डर गई।
'जाऊँ, माँ शायद चाय लिए बैठी है।' वहाँ से सरक गई।
लड़की के चले जाते ही सुकुमारी आकर आसमान से गिरीं-तो तुमने सूनी से क्या कहा
है? जल्दी ही तुम ये मकान बेच दोगे?'
मुस्कुराकर सोमप्रकाश देखते हुए बोले-'हाँ! कहा तो है। पर उसने तो तुमको
बताने के लिए मना किया था।'
'मुझे बताने से मना किया था? मजाक है? और इतने दिनों की तुम्हारी अकड़,
तुम्हारी जिद्द-सब खत्म? वह भी मुझे कुछ न बताकर लड़की को पहले...'
'तुम्हें बताता तो अचानक सुनकर तुम अपसेट हो जातीं तुमको बताता...वक्त और
मौका देखकर बताता।'
'लेकिन अचानक इरादा क्यों बदल डाला तुमने? ये मकान बेचकर, यह मोहल्ला छोड़कर
जा सकोगे क्या?'
'तुम हमेशा से एक पागल हो। 'न कर सकने' जैसी कोई बात होती है क्या? बहुत लोग
मोहल्ला छोड़कर जा चुके हैं, जा भी रहे हैं...'
सुकुमारी ने दीर्घश्वास त्याग कर कहा-'समझी। नरोत्तम का इस तरह से न बताकर
चले जाने से तुमको बड़ा दुःख हुआ है। अब वह तो जिसकी जैसी अवस्था, वैसी उसकी
व्यवस्था। लड़के तो कहते हैं जो आदमी खरीदे, उसके साथ एक व्यवस्था पक्की करनी
होगी। हम दोनों के लिए एक छोटा सा मकान...'
सोमप्रकाश बोले-'ठीक है। हम दोनों के रहने की व्यवस्था की जिम्मेदारी मैं ही
लूँगा। पर अगर मैं दूर, दूसरी जगह जाना चाहूँ तो चलोगी न मेरे साथ? और अगर
जाने की इच्छा न हो तो लड़कों के पास रह सकती हो।'
'तुम्हें छोड़कर लड़कों के पास? ऐसी बेसिर-पैर की बातें तुम करते कैसे
हो?'
'अच्छा-ठीक है।' हँसकर सोमप्रकाश ने सुकुमारी का सिर पकड़कर हिलाते हुए
कहा-'बूढे तो हो ही गये हैं-दोनों एक वृद्धाश्रम में चले जायेंगे।'
'वृद्धाश्रम? माने जिसे 'ओल्ड होम' कहते हैं?'
'अरे वाह! कौन कहता है सुकुमारी देवी के पास बुद्धि नहीं है?...आजकल एक से एक
ओल्ड होम हो गये हैं।...घर गृहस्थी की जिम्मेदारी से मुक्त-आराम से रहो।
'वानप्रस्थ' धर्म का पालन भी हुआ और मार्डन युग के तरीक़े से रहना भी
हुआ।'
'तुमने ये सब देखा है?'
'देखने में समय कितना लगता है?'
'चित्र तो 'स्वर्गीय' है पर...', सुकुमारी को शायद यह 'चित्र' ज्यादा आकर्षित
नहीं कर सका। थोड़ा सा चुप रहकर बोलीं-'तो अपने दोनों का इन्तजाम तो कर लोगे
और उनका? उन दोनों का? महाराज और अवनी?'
'अरे, वह लोग क्या यहाँ पड़े रहेंगे? उन्हें मकान बेचने के पैसे से मोटी रक़म
दे दूँगा-जाने कहूँगा। कुलदीप का तो घर है गाँव में, सब कुछ है। अवनी को भी
एक साथ इतना रुपया मिल जायेगा तो सब कुछ हो जायेगा। पैसों के अभाववश शादी
नहीं कर सका-बूढ़ा होने को आया। अब देख-सुनकर एक बालिकावधू जुगाड़ करके...',
कहकर जोर से हँसने लगे सोमप्रकाश।
सुकुमारी अवाक हुई। ये आदमी हर वक्त हँस कैसे लेता है? उन्हें तो इस घर को
छोड़कर जाने के नाम पर रोना आ रहा है। हर तरफ सूना-सूना जान पड़ रहा है।
सोमप्रकाश ने उनके चेहरे की तरफ देखकर कहा-'अरे अभी से कुछ उदास हो रही हो?
क्या अभी चले जा रहे हैं? बहुत सारे पापड़ बेलने के बाद...और फिर बेचने के छह
महीने बाद तक रह सकूँ-ऐसी शर्त रखूँगा अनुबन्ध-पत्र में।'
'ऐसा करोगे?'
'कह तो रहा हूँ न?'
सुकुमारी सुनकर थोड़ी आश्वस्त हुईं। छह महीने-कुछ कम समय नहीं होता है।
धीरे-धीरे मन को भी तैयार कर लेंगी। और जब सोमप्रकाश कहीं और जाकर रहेंगे,
सुकुमारी क्यों नहीं रह सकेंगी?
तो, अब जाकर पिताजी को अक्ल आई है।'
बहुत दिनों बाद दोनों भाई दूरभाष के माध्यम से बात कर रहे थे। अब दोनों के ही
मन के तार में सुखमय सुर झंकार रहा था।
पर दोनों ही कुछ विस्मित थे। अचानक ऐसी सुमति क्यों? गनीमत है कि असली कारण
का इन्हें पता नहीं था। वरना सुस्वाद नीम के पत्ते के स्वाद में बदल गया
होता।
'ओ:! दीदी के अनुरोध पर?'
अर्थात वे लोग कोई नहीं हैं। दीदी ही प्राणों से अधिक प्रिय हैं।
पर भीतर का राज़ अनजाना रहने के कारण, वे तन-बदन में आग लगने से बच गए।
इस समय दोनों भाई एक मत थे।
बार-बार फोन के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान कर रहे थे।
'तुम्हें क्या लगता है भइया? पिताजी अभी जिसका जो शेयर है दे देंगे?'
'बता नहीं सकता हूँ। पिताजी क्या तय करते हैं या सोचते हैं यह समझ सकना
मुश्किल है।'
'हाँ! हमेशा से ही गहरे पानी की मछली रहे हैं। पर मैं सोचता हूँ वही करना
उचित होगा पिताजी के लिए। सब कुछ अपने नाम पर छोड़ जाएँगे तो अपना-अपना हिस्सा
पाने में हमारी तो हड्डियाँ बज जायेंगी। आजकल कानून भी ऐसे कड़े हो गए हैं।'
'अच्छा ओमू माँ का भी तो एक शेयर होगा?'
'वह तो होगा ही।...बाद में वह भी हमारे तुम्हारे और दीदी में...ख़ैर अभी उन
बातों को छोड़ो। पर एक दिन जाकर मिल आना होगा। वैसे सुना है तुम तो कभी-कभी
चले जाते हो। मैं तो किसी तरह से भी वक्त ही नहीं निकाल पाता हूँ। दफ्तर में
आजकल काम बहुत बढ़ गया है...'
देवरानी जिठानी में भी दूरभाष के जरिए वार्तालाप न होता हो ऐसा नहीं है। यूँ
तो अक्सर होता है-'ए रूबी, तूने कहा था न कि मुझे एक दिन 'दक्षिणापन' ले
जाएगी। सुना है उनके यहाँ दशहरे से पहले का जबरदस्त स्टॉक आया है। कब चल
सकेगी?'
'आज ही शाम को चली आओ न।...मैं गड़ियाहाट के मोड़ पर 'वेट' करूँगी।'
या फिर-
'दीदी, उषा गांगुली की 'रूदाली' देखने की इच्छा है क्या? है तो बताओ। दो टिकट
दादा और तुम्हारे लिए ले लूँ।'
'दादा के लिए? छोड़...वह भला इन बातों का मतलब समझते हैं? जायेंगे नहीं। तू एक
ही टिकट लिए रखना। कितने का है रे?'
'उसकी बात तुम्हें सोचने की जरूरत नहीं है। टिकट मैं अमल के दफ्तर के पिउन को
भेजकर मँगवा लूँगी।'
'रूबी! कल टी.वी. पर बंगला फिल्म देखी? बहुत दिनों बाद एक...'
'ठीक कह रही हो वरना बंगला फिल्म माने ही तो पनिया सेन्टीमेन्टल पिनपिनापन।
कल वाला तो खैर बैठकर देखा जा सका।'
हाँ-इसी तरह की बातचीत होती है। अब आजकल नई खबर है-अर्थात सोमप्रकाश के
'सु-मतिं की खबर ने दूरभाष का खर्च बढ़ा दिया था।
'मकान हाथ से निकल जाने से पहले एक दिन सब कोई मिलकर कुछ वक्त बिता आयें तो
कैसे रहेगा रूबी?'
'बुरा नहीं। मैं भी यही सोच रही थी। किंग तो अभी भी 'घर' 'घर' करके जिद्द
करता है।...अच्छा अचानक सरप्राइज विजिट नहीं दिया जा सकता है? वृद्ध वृद्धा
डैम ग्लैड हो जायेंगे।'
'अचानक! नहीं रे रूबी! वैसा करना शायद ठीक नहीं होगा। माँ को तो जानती हैं,
पहले से पता नहीं हुआ तो, माने मन माफिक जतन न कर सकी तो मन खराब करेंगी।'
'ओ दीदी। ही ही। सासुमाँ के नन्दी मृगी दोनों तो अभी भी हैं। वे पहले न मालूम
न होने पर भी...ही ही...पार्टी दे डालने में सक्षम हैं।'
'सुन, ये बता उन दोनों का क्या होगा?'
'अरे? पता नहीं है क्या? अमल ने बताया कि अच्छी-खासी रक़म देकर उन्हें उनके
गाँव भेज दिया जायेगा।'
'तो एक दिन तय कर लिया जाए।'
'जल्दी क्या है? सुना है बेचने के बाद और छह महीने रह सकेंगे...पर क्या आखिरी
दिन तक रहेंगे किंग के दादा दादी? घर के लिए...ही ही...ऐसा मोह है।'
'ठीक कह रही है तू। 'घर' माने 'अपना घर' उसके प्रति तो मोह रह ही सकता है।
यूँ तो, मैं भी एक अपने 'मकान' का दिन रात सपना देखती हूँ-पर क्या इनकी तरह
इतनी पागल हो सकूँगी? 'घर' तो नहीं जैसे 'नारायण' 'इष्ट देवता'। अच्छा रे, तब
फिर वही बात रही।'
हाँ, इसी तरह से सम्पर्क बना रखा है। सोमप्रकाश की दोनों बहुओं ने। भाइयों के
बीच अगर बीस परसेन्ट तो बहुओं के बीच अस्सी परसेन्ट।
सोमप्रकाश का कमजोर हार्ट क्या कुछ मजबूत हो गया है? वरना आजकल निचली मंजिल
में वे कैसे दिखाई पड़ रहे हैं?...देखा जाता है गेट के पास झुक कर एक कोई
जंगली पौधा उखाड़कर फेंक रहे हैं या कोई सुन्दर सा घासफूँस का पौधा हाथ में
लेकर घुमा-घुमाकर देख रहे हैं। या उसे आधे बाँह के कुर्ते की जेब में रख रहे
हैं यत्नपूर्वक।
कभी-कभी आसपास रहने वाला कोई परिचित पड़ोसी उन्हें देखकर ठिठक कर रुक जाता है।
नमस्कार आदान-प्रदान के बाद आगे बढ़ आता है। पूछता है-'आजकल निकल रहे हैं?
बड़ी अच्छी बात है। हमने सुना आप भी मोहल्ला छोडकर चले जा रहे हैं? घर बेच
डालेंगे?'
सोमप्रकाश मुस्कुरा कर कहते-'बेचेंगे क्या, बेच डाला है।'
'बेच डाला है?'
'हाँ, वह बात अब 'भविष्य' नहीं 'अतीत' हो गई है। ये जो अभी भी यहाँ रह रहा
हूँ यह भी नए मालिक की कृपा समझिये। चाहूँ तो और दो-चार महीना रह सकता हूँ।'
|