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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

''निखिल!'' मर्माहत हो मालती तड़प उठी, ''मुझसे उस मासूम का घुलना नहीं देखा जाता।''

''एक बात कहूँ?'' अपने पर काबू पा उन्होंने प्रेम से समझाना चाहा, ''.. ज़रा गहराई से सोचो? इस मामले में भला हम क्या कर सकते हैं? यह स्नेहिल के मम्मी-पापा का निजी मामला है...''

''उनका निजी मामला है?'' मालती का कलेजा मुँह को आ गया, ''और स्नेहिल के?...उसका इससे कोई संबंध नहीं?''

''फिर वही?..'' निखिल थोड़ा झुँझलाए, ''जब उसके मम्मी-पापा साथ नहीं रहना चाहते...अलग होने का निश्चय कर लिया है...''

''मगर निखिल...'' उसकी आवाज़ घुट गई, ''...ऐसा निश्चय करने के पूर्व उन्होंने स्नेहिल से पूछा?...पूछा उस मासूम से...बेटे! हममें से किसी एक के बिना रह सकते हो?...तुम्हें मम्मी-पापा दोनों चाहिए या किसी एक के बिना काम चल जाएगा?''

''अब यार...उनके बीच की बातें भला मैं क्या जानूँ?...नहीं पट रही होगी उनमें। नहीं कर पा रहे होंगे एडजस्टमेंट...''

''एडजस्टमेंट!'' पीड़ा से मालती की आंखें उबलने लगीं, ''क्या होता है यह एडजस्टमेंट?...दुनिया में क्या हर बात हमारी मनमर्जी के हिसाब से हो जाती है?...क्या रोज़ की ज़िंदगी में हम दूसरों से एडजस्टमेंट नहीं करते?''

''...?''

''नौकरी में नहीं करते?...व्यापार में नहीं करते?...रिश्तेदारों के कई व्यवहार हमें खल जाते हैं...उनसे नहीं करते?...या तोड़ लेते हैं संबंध खट्ट से?''

''न...नहीं। ''निखिल भौंचक्के रह गए।

''फिर निखिल...'' वह सिसकने लगी, ''दूसरों से 'दुनियादारी' की खातिर हम एडजस्टमेंट कर सकते हैं...तो अपने ही जीवन-साथी से क्यों नहीं?...क्यों नहीं कर सकते अपनी ही गृहस्थी की खातिर?...अपनी ही औलाद की खातिर?''

निखिल अवाक् अपनी जीवन-सहचरी को देखते रह गए। उनकी यह कवयित्री पत्नी हर बात कितनी गहराई से सोचती है? इतनी भारी समस्या का उसने कितना छोटा-सा...सहज-सरल उपाय बतला दिया था?...शायद अपनी इसी विचारधारा के कारण वह उनके गुस्सैल स्वभाव को शक्ल भगवान जैसा पी जाती है।

निखिल को अपनी पत्नी पर गर्व भी हुआ और प्यार भी। सच! कितना सही कह रही है यह? जीवन-साथी के सिर्फ अवगुण क्यों देखते-खोजते रहना?...जो गुण है, उसी को दोनों हाथ बटोर खुश होते रहना। उन्होंने मालती के कँधे पर हाथ रखा और तत्क्षण करेंट लगे-सा उछल पड़े। मालती बुखार में बुरी तरह तप रही थी। घबराए निखिल ने तुरंत डॉक्टर साहब को फोन किया।

चार-पाँच दिन मालती बुखार में तड़पती रही। निखिल ने दिन-रात उसकी सेवा की। डॉक्टर साहब ने बोल दिया था, ''बीमारी कुछ नहीं है इन्हें, किसी बात का टेंशन पाल लिया है, उसी के कारण तनावग्रस्त हो गई हैं।'' निखिल समझ गए दिमागी तनाव की वजह। वे अब इसी कोशिश में रहते कि मालती स्नेहिल को याद न करे। उन्होंने मालती की डायरी भी छिपा दी। मालती को दिन-भर चुटकुले सुनाते या टेप पर भजन व शास्त्रीय संगीत के कैसेट लगा देते। टी.वी. पर भी जिस चैनल पर हास्य कार्यक्रम आ रहे होते, वही लगाते। इतना करने के बावजूद मालती जबतब स्नेहिल को याद कर उदास हो जाती। निखिल प्यार से समझाते, वह कुछ देर तक सुनती, फिर यकायक छटपटाने लगती, ''निखिल! स्नेहिल की जगह यदि अपना अंशुल होता? कैसा लगता तुम्हें?...पिता के जीवित रहते...बेटा अनाथों की तरह...दूसरों की दया पर पले...दूसरों के रहमो करम पर निर्भर हो?''

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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