कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँप्रकाश माहेश्वरी
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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।
मालती के ऐसे मर्मभेदी तर्कों को सुनते ही निखिल काँप उठते। वे तो कल्पना भी नहीं कर सकते थे अपने बेटे के इस रूप की। भला कौन आत्म-सम्मानी पिता ऐसी स्थिति को सहन कर सकता था? पिता के जीवित रहते औलाद परायों की दया का पात्र बने...? जीवित पिता की याद में घुल-घुलकर...तिल-तिलकर अपना तन-मन जलाए?
अब तो उन्हें भी स्नेहिल के अनदेखे पिता पर गुस्सा आने लगा। यह भी कोई तरीका है? अपनी संतान के प्रति कोई जिम्मेदारी है या नहीं? तलाक लेना था तो उसे जन्म ही नहीं देना था? आपस में पटरी नहीं बैठ रही थी तो पास नहीं आना था?...क्यों छूते रहे एक-दूजे को? महज वासना-पूर्ति के लिए?
उनका मन उबलने लगा।
लगभग हफ्ते-भर बाद मालती स्वस्थ हुई। बुखार उतर गया था, कमज़ोरी बाकी थी। आज पूरे आठ दिनों बाद वह शाला आई थी। गणित की एक विधि समझा उसने बच्चों को प्रश्नमाला के कुछ गणित हल करने को दे दिए। बच्चे व्यस्त हो गए। मालती कुरसी पर बैठ सुस्ताने लगी।
सुबह की धूप दरवाजे से अंदर आ रही थी। पिछले दिन बारिश हुई थी, रात में भी हुई थी। हवा में कुछ ठंडक थी। ऐसे में वह गुनगुनी धूप मालती को बेहद सुकून दे रही थी। वह कुरसी पर अधलेटी-सी पड़ी रही।
तभी फर्श पर किसी बच्चे की परछाईं नजर आई। मालती ने दाईं ओर सिर घुमाकर देखा। द्वार पर स्नेहिल खड़ा था, मौन गुमसुम!
स्नेहिल को यकायक आया देख मालती बुरी तरह चौंक पड़ी। उसका हृदय तीव्र गति से धड़कने लगा। उफ़! क्यों आया होगा यह? मालती का गला सूखने लगा।
स्नेहिल ने मौन रह 'प्रणाम' किया और हौले-हौले कदमों से चलता हुआ मालती की ओर आने लगा।
मालती का हृदय बैठने लगा। स्नेहिल पुनः अपने पत्र का न पूछने लगे? मालती के मस्तिष्क का तनाव फिर उभरने लगा।
स्नेहिल उसके पास आकर खड़ा हो गया था।
थूक गटक मालती ने सस्नेह उसके सिर पर हाथ फेरा। स्नेहिल थरथराती नज़रों से उसे देखने लगा। मालती ने उसके गाल थपथपा थके स्वर में पूछा, ''कक्षा में नहीं गए बेटे?''
'ना' में सिर हिला उसने नज़रें झुका लीं।
''क्यों?''
जवाब देते हुए स्नेहिल की आँखों में आँसू उमड़ आए, ''दीदी?...आपने बोला था न..., मेरी चिट्ठी पढ़कर पापा मेरे पास आएँगे।''
''...!'' मालती को अपना दिल डूबता महसूस हुआ।
''...मेरे पापा आ गए हैं, दीदी...देखो...'' उसने भर आए गले से द्वार की ओर इशारा किया।
अचंभित-सी मालती ने सिर घुमाकर देखा।
द्वार पर स्नेहिल के पापा हाथ जोड़े लज्जित से खड़े थे।...उन्हीं से सटी हुई स्नेहिल की मम्मी भी थीं।
''मेरे पापा आ गए हैं दीदी..., वो बोलते हैं...'' कहते-कहते स्नेहिल का चेहरा आँसुओं से तर हो गया, ''...वो बोलते हैं...अब वो मुझे ले जाएँगे...मम्मी को भी।''
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- पापा, आओ !
- आव नहीं? आदर नहीं...
- गुरु-दक्षिणा
- लतखोरीलाल की गफलत
- कर्मयोगी
- कालिख
- मैं पात-पात...
- मेरी परमानेंट नायिका
- प्रतिहिंसा
- अनोखा अंदाज़
- अंत का आरंभ
- लतखोरीलाल की उधारी