कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँप्रकाश माहेश्वरी
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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।
प्रधानाध्यापक जी ने गहरी साँस ली। स्नेहिल की तड़फती मनःस्थिति ने उन्हें भी हिलाकर रख दिया था। उन्होंने मालती से मंत्रणा की, ''उसकी माँ उसे लेने आती हैं...यदि हम उनसे उनके पति का पता...''
''नहीं बतलाने वालीं वे। मैंने पहले एक-दो बार चर्चा छेड़ने की कोशिश की थी, उन्होंने जिस तरह तमककर देखा...लगता है पति-पत्नी के आपसी संबंध काफी कटु हो चुके हैं...वे एक-दूजे का नाम तक सुनना पसंद नहीं करते।''
''ओह!'' प्रधानाध्यापक जी का दिल बैठ गया। बेचारा स्नेहिल।...इस सारे झमेले में उस मासूम का क्या दोष? उसके मन पर क्या बीत रही है, वह स्वयं क्या चाह रहा है...कोई सोच रहा है...फिक्र कर रहा है?
हारकर प्रधानजी ने मालती को कक्षा चतुर्थ दे दी। स्नेहिल की कक्षा मीता दीदी के जिम्मे कर दी।
अगले दिन। प्रार्थना के बाद मालती चौथी कक्षा की ओर जाने लगी। बच्चे भी कतारबद्ध अपनी-अपनी कक्षाओं में जा रहे थे। स्नेहिल ने जब मालती को अपनी कक्षा की बजाय दूसरी कक्षा की ओर जाते देखा, चोर निगाहों से बार-बार पलटकर उधर देखने लगा। अपनी कक्षा के द्वार पर आ वह ठिठक गया। चौखट का सहारा ले भर आए हृदय से उधर ही देखता रहा जिधर सीढ़ियों से चढ़ती मालती दूसरी मंजिल पर गई थी। पीछे-पीछे आ रही मीता दीदी सूक्ष्म नजरों से स्नेहिल की गतिविधियों का निरीक्षण कर रही थी। स्नेहिल के करीब आ उन्होंने ममता से उसके सिर पर हाथ फेरा, ''अंदर चलो, बेटे।'' स्नेहिल ने हौले से पलकें उठाईं और फिर सिर झुका मन-मन भर के कदमों से अंदर आया। कक्षा में आ ठेठ पीछे कोने में जा गुमसुम बैठ गया। मीता दीदी हर बच्चे से नाम पूछ परिचय लेने लगीं।
दो दिन और बीत गए। मालती अपनी चौथी कक्षा लेने लगी। मगर उसके दिल को चैन वहाँ भी नहीं था। उसे बराबर लगता स्नेहिल की शिकायती नज़रें उसका जब-तब पीछा करती रहती हैं। शाला लगने के 15-2० मिनट पूर्व वह आ जाता था। अपनी कक्षा के सामने बरामदे में एक खंभे की ओट में मौन चुपचाप खड़ा हो जाता। मालती के शाला आने पर खंभे के पीछे से चोरी-चोरी उसे निहारता रहता। मालती की नज़र उधर जाने पर झट खंभे की ओट हो जाता। मध्याह्न छुट्टी में भी ऐसा ही करता। यद्यपि मालती के पास आ वह बात नहीं करता था मगर उसकी सूनी-सूनी निगाहों को देखकर मालती को यूँ लगता, जैसे वह शिकायत कर रहा है, 'दीदी, मेरी चिट्ठी नहीं भेजी न?'
मालती का कलेजा मुँह को आ जाता। मीता दीदी से वह स्नेहिल के बारे में पूछती रहती थी। मीता दीदी ने बतलाया था-स्नेहिल और भी अधिक तन्हाँ व गुमसुम रहने लगा था। बस्ते पर, दरी पर, दीवार पर...बस उँगली फेरता रहता। मीना दीदी ने चोरी-छिपे उसकी पट्टी देखी थी। उस पर आगे पीछे दोनों ओर...आड़े-तिरछे अनघड़ अक्षरों में उसने अपने मन का वही दर्द लिख रखा था-'पापा आओ!'
मालती के हृदय में हूक-सी उठी। उसे स्नेहिल के अनदेखे पिता पर गुस्सा आने लगा। कितना बेरहम इंसान है वह? इकलौती संतान यहाँ उसके बिना छटपटा रही है और वह अपनी नई ज़िंदगी की शुरुआत करना चाह रहा है? उसे इल्म भी नहीं है कि उसके बच्चे के होंठों पर हँसी तो हँसी बोल भी गायब हो चुके हैं। बच्चे को जीते-जी घुलाकर वह कौन-सी अपनी शानदार ज़िंदगी जीना चाह रहा है?
घर आकर मालती बिस्तर पर पड़ गई। उसके हर दुख-दर्द की सहेली उसकी डायरी रहती थी। पन्ने पर पन्ने रंग देती। उस दिन भी उठकर तीन-
चार पन्ने लिखे और अवसादग्रस्त हो वहीं बिस्तर में लुढ़क गई। उसका सिर आज बहुत दुख रहा था। बदन भी हल्का-सा गरम था। निखिल दफ्तर से लौटे ही थे। कमरे में आ जो उसकी यह हालत देखी तो भन्ना गए, ''तुम भी मिती, हद करती हो? एक पराए बच्चे के पीछे...''
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