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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

उन्होंने विस्फारित नेत्रों से देखा-कल चने के झाड़ पर चढ़ाते हुए सहकर्मियों ने उन्हें दफ्तर के कुछ सरक्यूलर्स फोल्ड कर पकड़ा दिए थे। यद्यपि सारे सरक्यूलर रुटीन के थे, चपरासी तक उन्हें बिना पड़े रद्दी की टोकरी में डाल देते थे। मगर हेड आफिस के सरक्यूलर तो हेड आफिस के सरक्यूलर ठहरे...? लतखोरीलाल में-में करते रहे। खड़ेदम उन्हें तीस रुपये

की बैरंग तो छुड़ानी ही पड़ी, गोपनीयता भंग करने का मेमो झेलना पड़ा सो अलग।

तीसरा मेमो हाथ में लिए वे बाहर निकले। दो दिन में तीसरा मेमो लगातार तीन मेमो एक ही कर्मचारी को! मेमो नहीं हुआ, मेमो की हेट-ट्रिक्र हो गई!

लतखोरीलाल पस्त हो धम्म से कुर्सी में आ गिरे। बार-बार के इन अनाहूत अपमानों से वे बुरी तरह बौरा गए थे। एक बारगी तो मन हुआ, अभी चार सौ साठ रुपये ले जाकर बाँगड़ू के मुँह पर मार आएँ-लें तेरे रुपल्ले। मगर दूसरे ही पल यह सोच पगला गए कि बाँगड़ू सबके सामने डींग मारता फिरेगा-''25 पैसे में लतखोरीलाल को थर्रा दिया...मात्र 25 पैसे में! चवन्नी से उसकी चवन्नी कर दी।''

अवश क्रोध से वे हड़काए कुत्ते की मानिंद कुर्सी पर पल-पल पहलू बदलने लगे। इतनी जल्दी तो हार मानने वाला नहीं। उसने युद्ध शुरू कर दिया है, मैं भी पीछे हटने वाला नहीं। गरज उसको है, रुपए उसको लेने हैं माँड दे केस। अब तो कोर्ट फैसले के बाद ही दूँगा। तब तक रुलाता रहूँगा। कर ले जो करता है।

अगला दिन शुक्रवार था। लतखोरीलाल के फील्ड पर जाने का। रुटीन के मुताबिक हस्ताक्षर कर वे दस बजे रवाना हो जाते थे मजदूरों को लेकर। अभी वे रवाना हो ही रहे थे कि दफ्तर में चल रही कानाफूसियों को सुन उनके कान खड़े हो गए। बाँगड़ूजी ने आज सुबह सब्जी खरीदते समय दो-तीन कर्मचारियों को बतलाया था कि कल उसने एक और पोस्टकार्ड पोस्ट किया है, पिछली बार से भी अधिक डिजाइनदार और धाँसू इबारत वाला...सबको इंतज़ार करने के लिए बोल रहा था।

अब तो लतखोरीलाल का खून खौल उठा। अरे! तगादे की चिट्ठियाँ अन्य व्यापारी भी डालते हैं। इसी दफ्तर में बीस-बीस, तीस-तीस हजार रुपयों के तगादे की चिट्ठियाँ आती हैं...शालीन ढंग से सारे व्यापारी लिखते हैं। कोई इस तरह की रंग-बिरंगी नौटंकियों करता है क्या? खड़ूस!

वे सोच-सोच कर बौरा गए। दिन-भर उनकी हँसी उड़ाई जाऐगी, बेहतर है पोस्टमैन का इंतज़ार ही कर लूँ। सबके सामने बाँगड़ू की चिट्ठी बिना पढ़े फाड़कर...जलाकर...राख उड़ाकर जाऊँगा। समझता क्या है वह खड़ूस?...वे इंतज़ार करने लगे।

उधर उनके विरोधी भी मौके की ताक में थे। उनमें से एक तुरंत एक फाइल पर डिस्कस करने के बहाने केबिन में घुसा और बातों-बातों में बड़े साहब की जानकारी में ला दिया कि ''पैंसठ मज़दूर बाहर चौगान में घंटे भर से फालतू बैठे हैं...उन्हें फील्ड पर ले जाने वाला कोई नहीं है।''

''क्यों? लतखोरीलाल क्या कर रहा है? आज शुक्रवार को तो उसकी ड्यूटी है?'' साहब भड़ककर स्वयं बाहर निकल आए। इस लतखोरी ने तो दो दिनों से नाक में दम कर रखा है। वे बरामदे में लतखोरीलाल के ठीक सामने जाकर खड़े हो गए।

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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