कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँप्रकाश माहेश्वरी
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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।
लतखोरीलाल बेंच पर बैठे नाखून चबाते पोस्टमैन के खयालों में खोए हुए थे। उन्हें पता ही नहीं चला, बड़े साहब कब उनके सिर पर सवार हो गए हैं? वे अपनी ही कल्पना में गुम बाँगड़ूजी की गर्दन मरोड़े जा रहे थे...
साहब क्रोध से बिफरते हुए दहाड़े, ''आप?...आप यहाँ नाखून चबाते क्या कर रहे हैं? फील्ड पर क्यों नहीं गए अभी तक?''
''जी....म्. .म्. मैं...मैं...मैं...'' हड़बड़ाकर लतखोरीलाल स्कूली बच्चों की तरह कान पकड़ कर बेंच पर ही खड़े हो गए।
मज़दूरों और सहकर्मियों को हँसी रोकना दुश्वार हो गया।
साहब का पारा चढ़ता जा रहा था, ''...मज़दूर यहाँ फालतू बैठे हैं, उधर फ़ील्ड पर कंपनी का लाखों का नुकसान हो रहा है...और आप यहाँ मज़े से बैठे पान चबा रहे हैं!''
''जी...'' लतखोरीलाल ने एक पल में पूरा पान गले के नीचे उतार लिया, ''दरअसल मैं जरा पोस्टमैन का इंतजार कर रहा था...''
''पोस्टमैन का इंतज़ार?'' साहब ने दाँत किटकिटाए, ''...ये उमर है आपकी पोस्टमैन का इंतज़ार करने की?. मिसेज क्या मायके गई हैं?''
''जी नहीं...''
''फिर किसकी चिट्ठी का। इंतज़ार है? जाइए...रवाना होइए।'' गुस्से से बिफरते हुए साहब ने उन्हें बाहर जाने का इशारा किया।
आफ़त के मारे लतखोरीलाल समझ नहीं पाए-साहब ने डाँटा है या
जोक मारा है? जोक (चुटकुला) समझ वे दाँत दिखा हँसने वाले थे कि साहब को दाँत पीसते देख दुम दबाकर ट्रक की ओर लपके।
ट्रक फील्ड की ओर रवाना हुआ। बहुत देर तक लतखोरीलाल की कँपकँपी दूर नहीं हुई। 'क्या टेम (टाइम) पर उनकी बुद्धि जागी थी? यदि एक बार भी गफलत में हँस बैठता?'...वे रास्ते-भर झुरझुराते रहे।
ट्रक फील्ड पर पहुँचा। वहाँ भी उनके जी को चैन नहीं था। रह-रहकर एक ही कल्पना मन में आ रही थी। पोस्टमैन ने टेक्नीकलर अक्षरों में लिखा पोस्टकार्ड दिया...सारे दफ्तर वाले उस कार्ड के लिए झूमाझटकी कर रहे हैं...वे पढ़ रहे हैं, हँस रहे हैं, उनकी खिल्ली उड़ा रहे हैं...? पता नहीं आज उस बाँगड़ू ने कौन-सी धाँसू इबारत लिखी होगी? टाइपिस्ट जोशी बोल रहा था-बाँगड़ू अब हर सोमवार और गुरुवार इसी तरह के पोस्टकार्ड पोस्ट किया करेगा।...इधर लतखोरीलाल फील्ड पर आएगा उधर पोस्टकार्ड...?
उन्होंने सिर के बाल नोंच लिए। अगर बाँगड़ू ने कोर्ट केस दर्ज कर दिया होता तो उसमें ऐसी फजीहत नहीं हुई होती जितनी अकेले इस पोस्टकार्ड से हो गई। मरदूद ने कोर्टफीस भी बचाई, वकीलफीस भी बचाई और फख्त 25 पैसों में चार दिनों तक मेरी इज्जत की चिंदी-चिंदी उड़ाई।
लतखोरीलाल से अब और ताब लाते नहीं बनी। पता नहीं इस बाँगड़ू की खुराफाती खोपड़ी में और कौन-कौन सी अफलातूनी स्कीमें हों, ड्यूटी पूरी होते ही भागे घर और नगद चार सौ साठ रुपये ले जा बाँराड़ूजी के हाथ पर धर कान पकड़ कसम खाई, ''बाँगड़ूजी! अब कभी उधार नहहीं करूँगा...कम से कम आपसे तो हरगिज़ नहीं।''
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- पापा, आओ !
- आव नहीं? आदर नहीं...
- गुरु-दक्षिणा
- लतखोरीलाल की गफलत
- कर्मयोगी
- कालिख
- मैं पात-पात...
- मेरी परमानेंट नायिका
- प्रतिहिंसा
- अनोखा अंदाज़
- अंत का आरंभ
- लतखोरीलाल की उधारी