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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

रात-भर उन्हें नींद नहीं आई।

अगला दिन गुरुवार था। टेबल पर उँगलियों से बेताल तबला बजाते लतखोरीलाल आँखें मूँद कल्पना में आत्ममुग्ध हुए जा रहे थे, ''...कितना आनंद आएगा आज...ग्यारह बजने वाले हैं...बाँगड़ू के मुहल्ले में भी डाक इसी वक्त बँटती है...डाक बाँटते हुए वो आया उनके मुहल्ले का पोस्टमैन...बाँगड़ूजी उत्सुकता से अपनी चिट्ठियों का इंतज़ार कर रहे हैं। खड़ूस की हाल में सगाई हुई है न...पोस्टमैन मेघदूत लगता होगा उसे। पोस्टमैन को देखते ही बाँगड़ू की बाछें खिल गईं...पोस्टमैन अभी गया बाजू की दुकान में...अब आया बाँगड़ू की दुकान में..., बाँगड़ू ने दिल पर हाथ रख उत्सुकता से इधर हाथ बढ़ाया...पोस्टमैन ने खीसें निपोरे उधर से बैरंग लिफाफा थमाया...''

''लो, लतखोरीलालजी, आपकी बैरंग!''

''ऐं?'' लतखोरीलाल के कान में मच्छर भिनभिनाया। यह 'बाँगड़ू' की जगह 'लतखोरीलाल' की आवाज़ कैसे आई? उन्होंने कान खुजाया।

पोस्टमैन की हँसती आवाज़ पुनः सुनाई दी, ''लीजिए लतखोरीलालजी! आपकी बैरंग।''

''मेरी?'' अब तो लतखोरीलाल कुर्सी समेत बुरी तरह उछले।

सामने उन्हीं का पोस्टमैन खड़ा उन्हीं का बड़ा भारी लिफ़ाफ़ा थामे खीसें निपोरता भवें मटका रहा था।

लतखोरीलाल को कुछ समझ नहीं आया लिफाफा बाँगड़ू की बजाय उनके पास कैसे लौट आया?

पोस्टमैन ने आँखों को गोल-गोल घुमा उनको तीर चुभोया, ''देखिए आपकी चिट्ठी, आप ही के हाथ में दे रहा हूँ। निकालिए तीस रुपये, बहोऽऽत भारी बैरंग है...''

''त् त् तो मैं क्या करूँ? जिसकी है उसको दो?...लिफ़ाफ़े पर नाम तो पढ़ो...बाँगड़ू का है।...ये देखो...ये...बाँगड़ू गिफ्ट हाउस...''

''बाँगड़ूजी रोज़ सवेरे डाकखाने आकर अँपनी डाक खुद ले जाते हैं। उन्होंने लेने से मना कर दिया।''

''तो मैं ले लूँ? वाह-वाह। ये भी कोई बात हुई? सारे जमाने का ठेका मैंने ले रखा है?''

''ये देखिए...'' उसने लिफाफे पर प्रेषक का नाम बतलाया।

लतखोरीलाल ने सिर पीट लिया।

कल क्रोध के आवेग में उन्होंने दफ्तर का प्रिंटेड लिफाफा ले लिया था।'' और ये अक्षर...आप ही के हैं...सब बोल रहे हैं...''

लतखोरीलाल का गला सूख गया-तीस रुपये?...बाप रे!

''मैं नहीं छुड़ाता।''

''तो मत छुड़ाओ...मैं चला।'' पोस्टमैन तो जैसे इंतज़ार ही कर रहा था। लतखोरीलाल के इंकार करते ही तुरंत लिफ़ाफ़ा उठा बड़े साहब के केबिन में घुस गया।

लतखोरीलाल की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। अगले ही पल अंदर से पुकार हुई।

लतखोरीलाल पिटा चेहरा, मरी चाल अंदर दाखिल हुए।

साहब गुस्से से लाल-पीले हो रहे थे, ''...ये सब क्या है? दफ्तर के गोपनीय सरक्युलर बाहर किसी पार्टी को क्यों भेज रहे थे?''

लतखोरीलाल की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई।

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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