कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँप्रकाश माहेश्वरी
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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।
लतखोरीलाल ने सिर पीट लिया। अभी तो डाँट खाकर निकले हैं। फिर पेशी हो जाएगी। उन्होंने बालों को नोचते हुए दफ्तर में झुकी-झुकी नज़र दौड़ाई। सारे सहकर्मी फाइलों में सिर गड़ाए बेशर्म उत्सुकता से अगले 'एपीसोड' का इंतज़ार कर रहे थे। लतखोरीलाल की यह देखते ही जान जल गई। उन्होंने गुस्से से एक घूँसा मेज पर जमाया। उसी समय अंदर से बड़े साहब ने घंटी का बटन दबाया।
एक टाँग पर खड़ा चपरासी बेसब्री से इंतज़ार ही कर रहा था। लतखोरीलाल को 'चलो' का इशारा कर अंदर लपका।
लतखोरीलाल का कलेजा मुँह को आ गया।
चपरासी एक सेकेंड में टेनिस की गेंद की तरह अंदर से टकराकर बाहर आ गया।
''आइए'' खींसे निपोर उसने आँखें मटकाई।
सुनकर लतखोरीलाल ने आँखें चुराई।
देखकर सहकर्मियों ने परस्पर आँखें टकराईं।
लतखोरीलाल की तो बस जान पर बन आईं।
बलि के बकरे की तरह मिमियाते वे अंदर केबिन में दाखिल हुए।
बड़े साहब स्कूली हेडमास्टर की तरह लाल-पीले हो रहे थे। उन्होंने पहले तो पोस्टमैन के सामने लतखोरी को डाँटा, पोस्टमैन से माफ़ी माँगने को कहा, फिर एक दूसरा मेमो और थमा दिया, 'किसी बाहरी कर्मचारी से बेअदबी कर झगड़ा करने का!'
मेमो थाम लतखोरी बाहर आए। उनकी हालत लगातार दूसरा मैच हारे खिलाड़ी की तरह हो रही थी।
उन्होंने अवश क्रोध से मुट्ठियाँ भींच लीं। आज पता नहीं किसका मुँह देखकर उठे थे। बीबी-बच्चे भी एक दिन वास्ते कल ही गाँव गए थे, वरना उन्हीं पर सारा दोष थोप शाम को एक-एक की पजाई कर देते। दफ्तर में आज तक उनकी ऐसी फजीहत नहीं हुई थी। रह-रह कर बाँगड़ूजी को बेशुमार गालियाँ बकने लगे। एक टुच्ची-सी उधारी के लिए कल से तमाशा खड़ा कर दिया? आज तक बाँगड़ूजी को तगादे के लिए दौड़ाने में उन्हें मजा आता था। लेकिन बाँगड़ूजी ने आज 25 पैसे में पूरा बदला ले लिया था, सिर्फ 25 पैसे में! न तीर, न तलवार और इज्जत की चादर तार-तार! अरे हाय रे बाँगड़ू तेरा पोस्टकार्ड!
अपमान से उनका रोम-रोम सुलग उठा। हवा में हाथ घुमाते वे दाँत किटकिटाने लगे-'इस बाँगड़ू को मजा नहीं चखाया तो मेरा नाम लतखोरीलाल नहीं।'
तभी आदतन चुप रहने वाले गंभीर शर्माजी ने सुझाव दिया, ''लतखोरीलाल
जी! जवाब में आप बाँगड़ूजी को, एक बैरंग पत्र डाल दो। आजकल बैरंग के सीधे छह रुपये ठुकते हैं। खूब मजा आएगा।''
''हाँ...'' दूसरे ने आग को हवा दी, ''छह रुपये चुकाकर चिट्ठी फाड़ेगा तो अंदर निकलेगा कोरा कागज! दिन भर सिर खुजाता रहेगा, किसने भेजा?''
बात लतखोरीलाल को जम गई। तुरंत एक बड़े लिफाफे पर पता लिखा, अंदर कागज रखने लगे तो तीसरे ने सुझाव दिया, ''बैरंग जरा भारी कर दो...मजा भी भारी भरकम आएगा...'' बदले की आग में जल रहे लतखोरीलाल ने ढेर से कागजों का पुलिंदा बनाया और लिफ़ाफ़े में ठूँस बैरंग पत्र पोस्ट करवा दिया।
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- पापा, आओ !
- आव नहीं? आदर नहीं...
- गुरु-दक्षिणा
- लतखोरीलाल की गफलत
- कर्मयोगी
- कालिख
- मैं पात-पात...
- मेरी परमानेंट नायिका
- प्रतिहिंसा
- अनोखा अंदाज़
- अंत का आरंभ
- लतखोरीलाल की उधारी