कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँप्रकाश माहेश्वरी
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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।
बनवारीलाल सोफ़े से उतर गिड़गिड़ाने लगे, ''मेरे फंड्स के पैसे दिलवा दो साहब। बड़ी मेहरबानी होगी। बार-बार मेरे बूते का नहीं रहा किराया लगाकर आना। एक रुपया खर्च करना भी..., बहुत सोचना पड़ता है साहब मुझे।''
साहब को अब और सुनना दुश्वार हो गया। पिता उम्र का एक वृद्ध इंसान उनके सम्मुख इस तरह...? उन्होंने खींचकर वृद्ध बनवारीलाल की कृशकाया को अपने बाहुपाश में जकड़ लिया। भावातिरेक में उनसे बोला नहीं जा रहा था। किसी तरह दिल पर काबू पा उन्होंने रुँधे कंठ बनवारीलाल को आश्वस्त किया, ''अब आप रत्तीभर चिंता न करें, बनवारीलाल जी।
आपका काम हो गया समझो। ब्याज समेत एक-एक पैसा आपको मिल जाएगा।''
''सच, साहब!'' कृतज्ञता से बनवारीलाल की सूनी आँखें चमक उठीं।
'हाँ'में सिर हिलाते साहब आत्मीयता से मुस्करा दिए, ''अब तो खुश?''
आह्लादित बनवारीलाल ने उनके हाथों को अपनी सजल आँखों से लगा लिया।
''अच्छा बनवारीलालजी।'' उनकी पीठ थपथपा साहब ने उनके मन को खँगाला, ''फ़ंड्स का पैसा मिलने के बाद आपकी क्या योजना है?''
''बस...ये पैसे मिल जाएँ बैंक में एफ.डी. कर दूँगा। फिर ब्याज से...''
''और रहेंगे कहाँ?''
''माँचल वाली जमीन बेचकर यहीं शहर में। छोटा-सा घर ले लूँगा।''
''रायपुर या अन्य बेटों के पास नहीं जाएँगे?''
कटुता और नैराश्य से उनके होंठ फड़फड़ा कर रह गए।
साहब उनके चेहरे पर आते भावों को भाँपते रहे। कुछ क्षणों के मौन के बाद उन्होंने गहरे स्वरों में पूछा, ''बनवारीलालजी? आपको मालूम, आपके फंड्स के काम में अड़ंगे कौन डाल रहा था? किसकी हरकत होगी यह?''
''जाने दो, साहब। मेरा काम बन गया। अब मेरे मन में कोई कटुता नहीं।''
''फिर भी। कौन होगा यह अडंगेबाज?''
''हैं तो वे ही, कभी के मेरे मित्र रामप्र...''
''नहीं, बनवारीलालजी, वे नहीं, मैं...मैं स्वयं। आपका जी.एम.!''
''अ-आऽऽप!'' हैरत से बनवारीलाल की आँखें फैल गईं। अविश्वास से वे साहब को देखते रहे।
''हाँ, बनवारीलालजी! मेरे ही कहने पर रामप्रसादजी टालमटोल कर रहे थे।"
बनवारीलाल को अब भी विश्वास नहीं हो रहा था।
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