कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँप्रकाश माहेश्वरी
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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।
बनवारीलाल का हृदय फट पड़ने की सीमा तक भर आया। उन्हें अपने मन का सैलाब रोकना दुश्वार हो गया। आखिर क्या मजा मिल रहा है साहब को मेरा जख्म कुरेदकर?
साहब भी उन्हें उन लोगों सरीखे हल्के लगने लगे जिन्हें दूसरों की ढकी उघाड़ने में मजा आता है।
मन तो हुआ, साहब का बँगला तुरंत छोड़ दें। मगर बनता काम बिगड़ जाने की आशंका थी। मन मसोसकर सिर झुकाए चुपचाप बैठे रहे।
साहब आज कुछ विचित्र मूड में थे। बनवारीलाल के निजी जीवन के प्रति उनकी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी, ''मेरी समझ में नहीं आता, आप स्वयं कमज़ोर...पत्नी बीमार..., उस सुविधाहीन गाँव में रहने की बजाय आप यहीं क्यों नहीं रहते, अपने घर?''
अपना घर! सुनते ही एक हूक सी उठी बनवारीलाल के हृदय में।
थरथराती आवाज़ में उन्होंने अपना पथराया चेहरा ऊपर उठाया, ''घर तो बेच दिया था साहब!''
''बेच दिया था?'' हैरत से साहब ने उन्हें पूरा, ''कब?''
''रिटायर होने के 3-4 माह पूर्व।''
''क्यों?''
जवाब देते हुए बनवारीलाल को गले में कांटे चुभने लगे, ''तीनों बेटे-बहू जोर देने लगे-रिटायर होने के बाद तो हम पति-पत्नी को उन लोगों के पास ही रहना होगा। यहाँ इतनी दूर, सूने मकान की देखभाल कौन करेगा?...किराए पर देने में भी खतरे हैं....''
''और आपने घर बेच दिया?''
''जी-ईऽऽ!'' पछतावे के शूल से वे कराह उठे।
आज भी वे उस पल को हर पल कोसते रहते हैं जब तीनों बेटे-बहुओं के बहकावे में आकार उन्होंने अपना घर बेच दिया था। काश! न बेचा होता? शहर में रहने का ठौर तो रहता! भले ही छोटा सा घर था। कहने को तो रहता, अपने स्वयं के घर में रह रहे हैं।
सैकड़ों शूल खच-खच कर उनके हृदय में चुभने लगे। कितनी भारी गलती कर बैठे थे वे? लोग तो ज़िंदगी- भर पैसा-पैसा जोड़कर, बुढापे के नीड़ का इंतज़ाम करते हैं और उन्होंने बना-बनाया अपने मालिकाना हक का मकान बेच दिया? और पैसा भी बाँट दिया तीनों में बराबर?
''ऐसा क्यों कर दिया बनवारीलाल जी आपने?'' तरस खाते हुए साहब
बुरी तरह कलप उठे, ''कम-से-कम पैसा तो अपने पास रखना था?''
''अब साहबजी...'' याद करते हुए बनवारीलाल का हृदय हाहाकार कर उठा, ''मैंने सोचा-पैसा कहाँ छाती पर बाँधकर ले जाना है? मरने के बाद तो तीनों का ही है...''
''मरने के बाद न?...और जीते जी?'' साहब की आत्मा भी बुरी तरह तड़प उठी, ''बनवारीलालजी! सूरज भी साँझ को जब अस्ताचल को जाता है तो चंद्रमा के पास अपनी रोशनी सँजोकर रखता है-रात के सहारे के लिए! और आपने?. कुछ भी नहीं रखा अपने पास?...बाँट दिया सब? कम-से-कम अपनी वृद्धा बीमार पत्नी का तो ध्यान रखा होता? पूरी मुट्ठी खोल दी?''
बनवारीलाल को अब और जज्ब करना दुश्वार हो गया। इतने दिनों का दर्द, जो अंदर-ही-अंदर रोक रखा था, साहब के सहानुभूतिपूर्ण रुख का स्पर्श पाते ही, लावा बनकर बाहर फूट पड़ा। हाथों में मुँह छिपा वे फफक-फफक कर रो पड़े। एक नन्हे से बच्चे की तरह। दुनिया की भीड़ में...लुट चुके एक नादान, अनाथ, असहाय बच्चे की तरह। उनका करुण रुदन रोके नहीं रुक रहा था, ''...कुछ नहीं बचा साहब मेरे पास, कुछ भी नहीं...ले-देकर बस ये माँचल वाली जमीन है। दाम कम आ रहे थे उस वक्त...भगवान ने कुछ ऐसी बुद्धि दे दी कि बेची नहीं। लड़कों को भी जानकारी नहीं थी उसकी। वरना...''
साहब स्तब्ध सुनते रहे।
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