कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँप्रकाश माहेश्वरी
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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।
ज्योतिषी पशोपेश में पड़ गया। दरअसल वह तय नहीं कर पा रहा था, मुझसे दोनों के चक्कर लगवाए या फिलहाल एक के? मेरी दुकान से वह उधार सामान खरीदता था, मुझ पर उसे कुछ रहम आया। पुनः ऊटपटाँग गणनाएँ कर उसने अब हासिल में एक निकाला, ''...हूँ...अभी एक के चक्कर में ज्यादा हैं।''
बात शत-प्रतिशत सही थी। 'मालती' ही मेरी अधिकांश कहानियों की नायिका थी। चमेली तो भूले-भटके आती थी। मगर मेरी पत्नी समझी...? मन का आक्रोश दबा वह फुफकारी, ''क्या ये....अब भी उस कलमुँही से मिलते हैं?''
ज्योतिषी ने दिमाग लड़ाया। नई-नई शादी हुई है। सेठ दुकान पर तो मिलता नहीं, 'कलमुँही' से मिलने का समय कब निकालता होगा? उसने गोलमाल जवाब देने में भलाई समझी, ''मिलते तो नहीं। प्रत्यक्ष में आपके सामने बने रहते हैं। हाँ, उनके ख्यालों में वह जब-तब आती रहती है, आपके पति तब बड़े बेचैन हो उठते हैं। बेताबी इतनी बढ़ जाती है कि गुमसुम से बैठे रहते हैं। आँखें मूँदे सोचते रहते हैं...किसी का डिस्टर्बेंस पसंद नहीं आता उन्हें...''
मेरी पत्नी ने सुना तो धक्क से रह गई। कल ही मैंने उसे कहानी लिखने की प्रक्रिया समझाई थी, 'एकांत में...मौन रह...अपने पात्रों में खो जाना पड़ता है...उन्हीं के बारे में सोचते हुए...जैसे पात्र और मैं...मैं और पात्र...एक हैं!'
वह समझ गई-'कहानी लिखना तो महज बहाना है...असल मकसद है-अपनी 'मालती' की याद में खो जाना।...इसीलिए कल 'अधूरी पड़ी कहानी को पूरा करने' का बहाना कर उस मुँहझौंसी की याद में खो गए थे...बात तक नहीं कर रहे थे मुझसे!''
ईर्ष्याग्नि से उसकी आँखों में आँसू चमकने लगे। वाकई, ज्योतिषी प्रकांड विद्वान् हैं। बिना पूछे, सब सही-सही बतला दिया। मगर अब मैं क्या करूँ? ''आप चिंता न करें, देवी। हमारे पास हिमालय से लाया हुआ वशीकरण मंत्र है।''
''सच!'' उसे आस की किरण नजर आई।
''हाँ! शर्तिया असरकारक।'' ज्योतिषी ने अपने झोले में से एक ताबीज़ निकाला। ये ताबीज़ वह मेरी दुकान से, थोक में छह रुपये दर्जन के भाव से खरीदता था। ताबीज़ पर उसने कुछ देर तक धूनी की धूप दी, फिर ऊटपटाँग मंत्र बुदबुदा फूँ-फाँ कर ताबीज़ मेरी पत्नी को थमा दिया। मेरी पत्नी ने भी 'मालती का मोहजाल' तोड़ने के लिए उस महाशक्तिशाली अठन्नी के ताबीज़ को पाँच सौ रुपये में खरीद लिया।
घर आकर वह दबे कदमों से कमरे में दाखिल हुई। मैं अकेला बैठा, अपनी अधूरी कहानी का अंतिम दृश्य लिखने के चक्कर में, आँखें मूँदकर ताना-बाना बुनने में व्यस्त था।
इसका पारा चढ़ गया।
''पता नहीं मेरे ख्यालों में गुम हैं या उस नासपीटी के?'' परीक्षा लेने के लिए उसने मेरे कानों से मुँह सटा फुसफुसाकर पूछा, ''किन ख्यालों में गुम हो, सैंयाजी?''
पत्नी की मदभरी आवाज़ सुन मैं मदहोश हो गया। उसी की तर्ज पर आहें भरते हुए उसकी ओर अधमुँदी आँखों से देखा, ''सोच रहा हूँ...इस
अवस्था में अब मालती का क्या करूँ?''
''कुछ नहीं करने का!'' सुनते ही ज्वालामुखी-सी भड़क उसने मेरी डायरी उठाकर फेंक दी, ''और कान खोलकर अच्छी तरह सुन लो...अब फिर कभी मालती या चमेली का नाम लिया तो लिखकर रख लो, मेरा मरा मुँह देखोगे!''
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