कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँप्रकाश माहेश्वरी
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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।
उस दिन पहली बार मैं दुकान गया। मेरी पत्नी को भी पहली बार फुर्सत मिली। अभी तक कहानियों की फाइलें देखने का उसे वक्त नहीं मिल पाया था। दुकान वास्ते रवाना करते समय उसने अपनी मदभरी आँखें मेरे चेहरे पर चिपका दीं, ''आज पढ़ूँगी सारी कहानियाँ!''
कल्पनाओं में झूमता मैं दुकान आया। शादी के पूर्व ही मेरी ढेरों कहानियाँ
छप गई थी। प्रशंसकों के पत्र आते रहते थे। प्रशंसिकाओं के भी। कुछ मुक्तभाव से मीठी-रसीली बातें लिखती थी। मन में फुलझड़ियाँ छूटती। मगर इंप्रेशन बनाए रखने की खातिर जबरन दिल को काबू में रखना पड़ता।
दुकान पर मेरा मन नहीं लग रहा था। कल्पनाओं में डूबा मंद-मंद मुस्कुराता रहा। जब अनजान होने के बावजूद प्रशंसिकाएँ दिल दे देती हैं, तो यह तो मेरी ब्याहता पत्नी है। ज्यों ही कमरे में प्रवेश करूँगा, गले में बाँहों के हार डाल देगी। आंखों में शराब के प्याले घोल मुझे आशीष....त्...मेरी स्तुति करेगी, '...कितने महान लेखक हैं आप! 'प्रेमचंद-शरदचंद्र' के बाद बस आप ही हैं! आपने हिंदी साहित्य के कूड़े में आशा के फूल खिला रखे हैं! कितनी भाग्यशालिनी हूँ मैं...न जाने कितने जन्मों का पुण्य उदय हुआ जो आप जैसा महान् साहित्यकार मुझे पतिरूप में प्राप्त हुआ...'
अपने आप पर इतराता, ढेरों भीनी-मधुर कल्पनाएँ करता घर पहुँचा। कमरे में पाँव धरते ही मेरी सारी कल्पनाएँ खंडहर हो गईं। मैं अपना ही कमरा पहचान नहीं पाया। कमरा क्या था, युद्ध के बाद का तहस-नहस मैदान था। पूरे कमरे में मेरी कहानियों की कटिंग्स बिखरी हुई थीं। वह (मेरी पत्नी) स्वयं, कलिंग युद्ध के बाद के अशोक की तरह खड़ी थी। बस, फर्क सिर्फ इतना था, सम्राट अशोक 'युद्ध के बाद' युद्ध की निस्सारता के बारे में सोच रहा था, मेरी पत्नी 'महाभारत' की उद्घोषणा सी कर रही थी, ''युद्ध अवश्यंभावी है।''
मैं मुर्गे की तरह गर्दन उचका-उचका कर यत्र-तत्र छितरी अपनी कहानियों को देखने लगा। हर लेखक को अपनी रचनाएँ जान से प्यारी होती हैं। 'संपादक के धन्यवाद व खेद सहित' लौटी रचनाओं को भी 'साहित्य की अनमोल थाती समझ' सहेज कर रखता है। फिर ये सब तो मेरी छपी हुई रचनाएँ थीं, लब्धप्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में! इनकी ऐसी दुर्दशा?
मैंने अचकचाकर उसकी ओर देखा। वह लोडेड ए. के. 47 की तरह मेरे लौटने का इंतज़ार कर रही थी।
मैं उससे कोई सफाई पूछने की हिमाकत करता, उसने लाल-लाल आँखें तरेरकर मुझे घूरा, ''ये मालती कौन है?''
''मालती।...कौन मालती?''
''ज्यादा भोले मत बनो, जैसे मैं कुछ नहीं जानती।''
''अजीब पहेलियाँ बुझाती हो, साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहतीं?''
''अब कहने को बचा क्या है?'' गुस्से से तमतमा उसने कहानियों की कटिंग्स मेरे सामने पटक दीं, ''जो कहानी पड़ती हूँ उसी में मालती? आखिर ये चक्कर क्या है? वो मुई इतनी ही प्यारी थी, तो मुझसे शादी का नाटक क्यों किया? उसी को ले आते!''
''ओफ़ो तो यह बात है।'' मैं खुशी से चहका, नई-नवेली खूबसूरत पत्नी 'सौत' के नाम पर भिनभिनाए तो स्वयं पर नाज होगा ही। मैंने स्टाइल से कँधे उचकाए ''ऐसा है बेगम, कहानी में कोई नाम रखना पड़ता है...''
''तो मालती का ही क्यों?...हज़ारों-लाखों नाम हैं, और कोई नाम नहीं सूझता आपको?''
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