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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

मेरी परमानेंट नायिका


अपनी आरंभिक कहानियों में मैं पात्रों के नामकरण पर ध्यान नहीं देता था, लिखते-लिखते जो नाम सूझ गया वही धर दिया। अपनी पाँचवीं या छठी कहानी में मैंने एक 'झगड़ालू-कर्कशा' औरत का बहुत ही धाँसू चित्रण किया था। उसके तीर से चुभते डायलाग मैंने सार्वजनिक नल पर झगड़ रही एक औरत के मुखारविंद से सुने थे। मैंने वे ही डायलॉग लटकों-झटकों सहित अपनी हीरोइन (कहानी वाली) के मुख में पिरो दिए। पढ़ने वालों की तबीयत हरी हो गई। मुहल्ले वालों ने आगे बढ़-बढ़कर मुझे बधाइयाँ दीं। नवविवाहिताओं ने तो चुपके से बुलाकर मिठाई के पैसे दिए कि सास से लड़ने वास्ते ऐसे ही जानलेवा झन्नाटेदार डायलॉग लिखकर दे दूँ। कहानी के पारिश्रमिक के इतने रुपये नहीं मिलते थे, जितने मिठाई के पैसे में मिल गए। मेरी तबीयत बागबाग हो गई। मगर दोपहर बीतते न बीतते मेरी शाम आ गई। लिखते वक्त मैंने ध्यान रखा नहीं, और उस ''झगड़ालन...कर्कशा...सास उत्पीड़क... मुँहझौंसी... घमंडी... नकचढ़ी'' औरत का नामकरण मेरी रिश्ते की एक भाभी के नाम पर हो गया!

कहानी में मैंने उस लेडी गब्बर सिंह के लड़ने का स्टाइल भी दिया था, '...जंगली भैंसे-सा डकराना...सर्पिणी-सा फुफकारना...आँखों को नचाना...हाथों को फटकारना...'

पढ़कर उनकी सास व पड़ोसनों को तो बेहद ठंडक मिली, वह भड़ककर दावानल हो गईं। फौरन पहली ही बस पकड़ मेरी गर्दन नापने आ गईं। खूब घमासान मची। एक तरफ वे, दूजी तरफ मुझे घेरकर खड़ी मेरी माँ व काकियाँ!

मेरे ही अंगारा डायलॉगों का जमकर उपयोग हुआ। बड़ी मुश्किल से उन्हें विदा किया जा सका। उनके जाते ही, अभी तक मेरी रक्षा कर रही मेरी माँ-काकियाँ मुझ पर पिल पड़ी, ''तुझे जरूरत क्या थी उस नासपीटी की कहानी लिखने की?''

मैं चाहकर भी उस 'नलवाली' का नाम नहीं ले सका, मेरे काकागण फौरन मेरे कान उमेठते, ''अबे, (हमारे रहते) पनहारिनों के चक्कर लगाता है?''

हारकर मैंने कसम खाई, नाम पहले रख लूँगा, कहानी बाद में लिखूँगा। मगर इस कसरत में लिखने का सारा मूड चौपट हो जाता। पूरा ध्यान नामकरण में उलझा रहता। ईश्वर की दया से संयुक्त परिवार है और लंबी-चौड़ी रिश्तेदारियाँ। जो नाम सोचता, वही किसी रिश्तेदार का निकल आता। कहानी लिखने में इतनी मशक्कत नहीं करनी पड़ती, जितनी पात्रों के नामकरण में। हर नई कहानी के पूर्व यही माथा-पच्ची करनी पड़ती। कई बार तो जब तक नाम सूझता, कहानी का प्लाट हवा हो जाता। हारकर मैंने अपने पात्रों के  'परमानेंट' नाम रख लिए। बहुत सोचने के बाद, 'मालती' और 'चमेली' दो ऐसे नाम रखे जो रिश्तेदारी में दूर-दूर तक किसी के नहीं थे, दूधपीती बच्ची के भी नहीं। अब मेरी कहानियों में 'मालती' व 'चमेली' स्थायी रूप से नज़र आने लगीं। स्त्रीपात्र शहर की है तो मालती..., गाँव की है तो चमेली। लफड़ा ही खतम। आओ, अब कौन रिश्तेदार आता है लड़ने। वहीं पटखनी दे दूँगा।

चूंकि मेरी अधिकांश कहानियाँ शहरी पृष्ठभूमि की हैं, इसलिए 'मालती' का बोलबाला अधिक रहा। 'चमेली' भूले-भटके आ जाया करती। इस तरह, शादी के पूर्व ही, मालती व चमेली परमानेंटली मेरी ज़िंदगी में...म...मतलब मेरी कहानियों में बस गई थीं। नाम की इस एकरूपता पर मेरे किसी रिश्तेदार या परिजन ने तो गौर नहीं किया, मेरी पत्नी ने शादी के हफ्ते भर बाद ही हंगामा खड़ा कर दिया।

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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