कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँप्रकाश माहेश्वरी
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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।
उसकी पीठ थपथपा मैंने घड़ी देखी। मेरी गाड़ी आने में फिलहाल एक घंटा था। उसे संग ले मैं स्टेशन के बाहर आया। थोड़ी ही दूर पर कुछ जनरल स्टोर्स हैं। एक स्टोर्स से दो ब्रश, पॉलिश की दो डब्बियाँ और रखने के वास्ते एक नायलोन की थैली दिलवा दी।
धोंडू स्वप्नलोक में विचरता-सा मेरे पीछे-पीछे चलता रहा। उसे यह सब परीकथा-सा लग रहा था।
स्टेशन लौट मैं एक बेंच पर बैठ गया।
''अच्छा धोंडू...'' मैंने जूते खोल उसके सम्मुख कर दिए ''...अपने धंधे का श्रीगणेश करो। मेरे जूते पॉलिश कर दो।''
आह्लाद में डूबे धोंडू की आँखें यकायक छलछला आईं। आस्तीन से आँखें पोंछ उसने धरती माँ को प्रणाम किया और थैली में से डब्बी-ब्रश निकाले। डब्बी खोल उसमें थोड़ी सी पालिश जूते पर लगाई और फिर ब्रश को आड़ा-तिरछा चलाने लगा। अनुभव तो कुछ था नहीं, अनभ्यस्त हाथों से कोशिश करता रहा।
''कोई बात नहीं, एक-दो दिन के अभ्यास में अच्छी तरह चमकाने लगोगे...'' उसका उत्साह बढ़ा मैंने जेब से दो रुपये निकाले और उसकी ओर बढ़ा दिए।
''...ये...ये...ये क्या साहेबजी?'' चौंककर वह दो कदम पीछे सरक गया।
''तुम्हारी मजूरी।''
''मजूरी...!'' होंठों में बुदबुदा वह हाथ जोड़ रोने लगा, ''यह आप क्या गजब कर रहे हैं, साहेबजी?...मजूरी भला काहे की? आप पहले ही मेरे वास्ते अड़तीस रुपये खर्च...''
''वे तो 'कर्ज 'के हैं, धोंडू। उसका हिसाब अलग है। ये तुम्हारी मजूरी के हैं, 'पहली मजूरी' के।...बोनी-बट्टे की कमाई है..., इंकार नहीं करते। रख लो।''
वह फिर भी मना करता रहा। मैंने उठकर जबरदस्ती उसकी जेब में डाल दिए। मेरा हाथ पकड़ वह आँखों से लगा फूट-फूट कर रो पड़ा।
''अरे अरे...यह क्या करते हो?'' मैंने हाथ छुड़ाना चाहा।
''ई-ई-ई-ई...'' वह पूरी शक्ति से मेरे हाथ को भींच अपने निश्छल आँसुओं से तर करता रहा।
मेरा हृदय भी भर आया। गला खँखार मैंने दूसरे हाथ से उसकी पीठ थपथपाई, ''इस तरह अधीर नहीं होते धोंडू। ईश्वर पर भरोसा रखो। श्रीकृष्ण भगवान का नाम सुना है न?''
''हाँ, साहेबजी।'' उसने अपना अश्रुपूर्ण चेहरा हिलाया।
''...उन्होंने कहा था-'फल की चिंता मत करो, बस मेहनत करते रहो, काम करते रहो, मैं सब देख लूँगा।'...वे हरेक की चिंता करते हैं धोंडू। वे तुम्हारा भी ख्याल रखेगे।''
''सच्ची, साहेबजी?''
''हां, धोंडू।...तुम्हारे भी अच्छे दिन आएँगे। चार पैसे जमा हो जाएँगे। तुम्हारा घर बस जाएगा। इसी तरह मेहनत करते रहो। भगवान मेहनत करने वाले का साथ देते हैं। वे तुम्हारा भी देंगे।''
धोंडू की आँखों से झर-झर आँसू बहते रहे।
मेरी गाड़ी लग गई थी। कोई विशेष भीड़ नहीं थी। धोंडू ने खिड़की वाली सीट पर मेरा सामान जमा दिया। मैं आराम से बैठ गया। धोंडू नीचे जाकर खड़ा हो गया।
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