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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

गाड़ी रवाना होने में अभी 15-2० मिनट की देर थी। मैंने उसे कहा-''अब वह कोई ग्राहक तलाशे, उसकी ग्राहकी का समय है।'' मगर वह अनसुना कर खिड़की से सटा खड़ा रहा। जब मैंने 3-4 मर्तबा आग्रह किया, वह सूनी आँखों से मुझे निहार खड़े रहने के लिए मौन याचना करने लगा। उसकी आँखों में छाए एकाकीपन के भाव देख मैं काँप उठा। उफ! कितना अकेलापन था उसकी आँखों में! इतना बड़ा देश...80 -85 करोड़ की आबादी, कहने को 'भयावह रूप से बढ़ रही जनसंख्या', मगर इतने सारे लोगों में उसका अपना कहने वाला एक इंसान नहीं! कितना सालता होगा उसे यह अकेलापन?

मेरा हृदय भर आया।

उसने धीरे से नजरें उठाईं, ''मेरी याद आएगी, साहेबजी?''

''बहुत याद आएगी, धोंडू...'' मैंने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा, ''...और सच कहूँ तो प्रेरणा मिलेगी मुझे तुमसे। कठिनाइयों से लड़ने की, मुसीबतों से जूझने की।''

वह हैरत से मुझे घूरने लगा।

''मैं सच कह रहा हूँ, धोंडू...'' निश्छलता से मैं भावावेश में बोलता गया, ''...तुम्हारा जीवन...तुम्हारी जिजीविषा दूसरों के लिए भी उदाहरण बन सकती है।...तुम्हारे पास कोई साधन नहीं...तुम्हें किसी का सहारा नहीं...तुम्हारी कोई मदद करने वाला नहीं...., फिर भी तुम...बच्चे होने के बावजूद जूझते रहे...लड़ते रहे भूख से...और टूटने का नाम भी नहीं लिया?''

धोंडू फटी विस्फारित नज़रों से मेरे ऊँचे-ऊँचे साहित्यिक शब्दों को सुनता रहा, ''...आप तो बेफजूल मेरी तारीफ़...''

''इसमें बढ़-चढ़कर कुछ भी नहीं है धोंडू तारीफ़ के काबिल तुम हो ही। मैं संयुक्त परिवार का हूँ, फिर भी कभी-कभी हिम्मत हार...। तुमसे मैं सदा प्रेरणा पाऊँगा, धोंडू। अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहने की। देखना...एक दिन तुम जरूर सफल होगे...''

गाड़ी ने सीटी दे दी थी। वह धीरे-धीरे रेंगने लगी। धोंडू ने एक बार मेरा हाथ अपनी आंखों से लगा प्रणाम किया और साथ-साथ चलने लगा।

''...अब तुम गाड़ी से दूर हो जाओ, धोंडू...देखो इसकी गति तेज होती जा रही है...''

''मुझे कुछ नहीं होगा, साहेबजी...'' वह गाड़ी के संग-संग दौड़ने लगा। मैं उठकर दरवाजे पर आ गया। धोंडू भी उधर आ गया। गाड़ी की गति तेज होने लगी थी।

''अच्छा, धोंडू...'' हाथ उठा मैंने सस्नेह उसे निहारा, ''विदा, भगवान ने चाहा तो फिर मिलेंगे...''

''...जरूर साहेबजी...मेरे को भूलना मत...'' वह कमज़ोरी के कारण हाँफने लगा था, ''...मेरे पर भरोसा कायम रखना साहेबजी..., मैं आपका भरोसा तोड़ूंगा नहीं...''

गाड़ी अब प्लेटफॉर्म छोड़ने लगी थी। प्लेटफॉर्म के सिरे पर आ धोंडू बुरी तरह हाँफने लगा। नाम-पट्ट के खंबे का सहारा ले वह हाँफते हुए पूरी ताकत से चीखने लगा, ''...वो मेम साहेब का भरोसा नहीं तोड़ा साहेबजी..., आपका भी नहीं तोड़ेगा...मेरे पे भरोसा रखना साहेबजी ईऽऽ...भूलना मत मेरे को...''

रेलगाड़ी की गड़गड़ाहट तेज होती जा रही थी...उसमें धोंडू की आवाज़ खोती गई...बोगी के द्वार पर खड़ा मैं हाथ हिलाता रहा...कुछ ही क्षणों में वह ओझल हो गया।

अपनी सीट पर आ मैं धम्म से बैठ गया।

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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