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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

'हां मेम साहेब।'

'फिर कुछ काम किया करो। भीख नहीं माँगना। अपनी मेहनत की कमाई खाना। मेहनत करने वाले की हमेशा इज्जत होती है। करोगे न?'

महिला के समझाने का ढंग इतना प्रेरणादायक एवं मन को छूने वाला था कि धोंडू ने उसी क्षण वायदा किया-अब कभी भीख नहीं माँगेगा। मेहनत-मजूरी कर जो भी रूखी-सूखी मिलेगी उसी में गुजारा कर लिया करेगा। शुभारंभ करवाने के लिए महिला ने अपना सामान उससे उठवाया।

और...उस दिन के बाद...धोंडू ने फिर कभी भीख नहीं माँगी। हम्माली करता, मकान का गारे-मिट्टी का काम करता...दिन-भर भटकता, जो भी पैसे मिलते उसी में गुजारा कर लेता। यूँ बीच-बीच में ऐसा कई मर्तबा हुआ कि उसे पेट भरने लायक मजूरी नहीं मिली, उस वक्त भूख की व्याकुलता के कारण उसके मन में पुनः भीख माँगने का विचार सिर उठाता, लेकिन तभी उसकी आँखों के सम्मुख उस देवी सरीखी महिला का चेहरा चमकने लगता, उनके द्वारा दी हुई 'धरती माता की सौगंध' याद आती और वह दूने आत्म-विश्वास से भर, भीख माँगने का विचार दूर छिटक पानी पी दिन गुजार देता। अभी बेचारे को फिर पिछले तीन दिनों से कोई मजूरी नहीं मिली थी...

घुटनों में मुँह छिपा वह फूट-फूटकर रो पड़ा, ''...अब मुझसे सहा नहीं जा रहा साहेबजी..., भूख बिल्कुल भी सहन नहीं हो रही। दो दिन हो गए..., अनाज का एक दाना मुँह में नहीं गया..., पानी पीकर दिन गुजार रहा हूँ साहेबजी।...अंतड़ियाँ खिंचने लगी हैं...अब तो पानी का घूँट उतारता हूँ...पेट

में दर्द होने लगता है...। मेरे पे मेहरबानी करो साहेबजी...एक रुपया नहीं तो पचास पैसे दे देना..., मेरे से सामान उठवा लो साहेबजी, दया करो...''

मेरा हृदय हाहाकार कर उठा। भीग आई आँखों को पोंछ उसके कँधे पर हाथ रखा, 'अच्छा-अच्छा, निराश मत होओ। सूटकेस उठा लो। तुम्हें पाँच रुपये दूँगा, कुछ खाने का है, चाहो तो वह भी रख लेना।'

सुनते ही उसका चेहरा खिल उठा। अहसान मानते हुए उसने सूटकेस उठा लिया। कुछ कदम चलने के बाद मैंने स्नेह से उसकी पीठ थपथपाई, ''एक बात बतलाओ, धोंडू? जब तुम्हें मजूरी नियमित मिल नहीं पाती, तुम कोई छोटा-मोटा काम-धंधा क्यों नहीं कर लेते? मसलन...बूट पॉलिश?''

''साहेऽऽब...'' आंखें फाड़ उसने मेरी ओर निहारा, ''...खाने को फूटी कौड़ी नहीं मेरे पास..., बुरूस, पॉलिस खरीदने को पैसा कहाँ से लाऊँगा?''

मैं हौले से मुस्कुरा दिया। उससे इसी उत्तर की आशा थी मुझे। अपनी योजना आगे बढ़ाते हुए मैंने अपनी नज़रें उसके चेहरे पर गड़ा दीं, ''अच्छा...यदि मैं तुम्हें ब्रश-पॉलिश दिलवा दूँ..., तब कर लोगे?''

चलते हुए हठात् वह रुककर मुझे अविश्वास से देखने लगा।

''बोलो?''

''मगर साहेबजी...'' वह अब भी विश्वास नहीं कर पा रहा था, ''मैं आपका ठिकाना जानता नहीं, मेरा ठिकाना कोई है नहीं..., मैं आपका कर्ज चुकाऊँगा कैसे?''

''उसका भी उपाय है...'' मैंने एक-एक शब्द पर जोर देकर कहा, ''...जब तुम्हारे पास कुछ पैसे जमा हो जाएँ तब तुम किसी और भीख माँगने वाले बच्चे को पकड़ लेना...उसे अपने साथ रोजगार पर लगा लेना, मेरा कर्जा पट जाएगा।''

वह आश्चर्य से मुझे घूरने लगा। उसे अभी भी विश्वास नहीं हो पा रहा था कि मैं उसे ब्रश-पॉलिश दिलवा दूँगा।

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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