कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँप्रकाश माहेश्वरी
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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।
महिला ने कुछ क्षण उसे ऊपर से नीचे तक देखा, फिर अपने सम्मुख बिठा स्नेह से समझाया, ' देखो..., जो शरीर से लाचार होते हैं, भीख माँगना उनकी मजबूरी हो सकती है। तुम क्यों माँगते हो? भगवान ने तुम्हारे हाथ-पाँव सब सही-सलामत दिए हैं...'
धोंडू ध्यान देने का नाटक कर मुँह टूँगता वैसा ही बैठा रहा। बकने दो, जो बकती है। भाषण देने के बाद खाने को तो देगी ही। सुनते रहो...।
महिला ने हिम्मत नहीं हारी। पूर्ववत् स्नेह से समझाती रही, '?...अभी मैंने देखा...उस छोटी बेबी ने अधखाया बड़ा फेंका, उस बड़े पर उधर से एक कुत्ता लपका, इधर से तुम भी...'
'...!'
'...अच्छा लगा तुम्हें वैसा करते हुए?...इंसान होकर, कुत्ते की बराबरी करते हुए?'
धोंडू सकपकाकर महिला का मुख देखता रह गया।
महिला फिर भी चुप न रही। उसने उसके सुप्त मनोभावों को उभारा, '...तुमने उसके पहले एक सेब खाया था..., वो उधर पटरी के वहाँ पड़ा था...'
'वो तो किसी मुसाफिर का गिरा हुआ था। कोई मालिक नहीं था उसका। मैं उठाकर खा गया...'
'उतनी गंदी जगह का?'
जुगुप्सा से महिला के चेहरे पर उल्टी करने जैसे भाव उभर आए '...ज़रा देखो पटरी के वहाँ?...तुम्हें 'घिन 'नहीं आई?'
'...अ...' वह कोई सफ़ाई पेश नहीं कर पा रहा था, '...गरीब को काहे की घिन मेम साहेब?'
'इसमें गरीब-अमीर की कौन-सी बात आ गई, बेटे?...आखिर तुम भी एक इंसान हो? जैसा दूसरों का शरीर है, वैसा ही तुम्हारा भी है। दूसरों को बीमारी लगती है, तुम्हें भी लग सकती है...'
'...!'
'फिर खाना चाहिए ऐसी गंदी जगह का?'
'...' धोंडू के मुँह से बोल नहीं फूट पा रहे थे। ज़िंदगी में पहली बार कोई उससे इतनी इज्जत से बात कर रहा था। उसे इंसान समझ प्रेम से समझा रहा था। वरना आज तक हर कोई उसे कुत्ते की तरह दुत्कार कर...। हठात् उसकी आँखों से आँसू ढुलक पड़े।
'कुछ समझ में आई मेरी बात?' महिला ने आगे झुक उसके कँधे पर हाथ रखा था।
'मेम साहेब...' रुँधे कंठ से उसने अपना चेहरा ऊपर उठाया, ''मुझे तो एक ही बात समझ में आई।''
'कौन सी?'
'आप बहुत अच्छी हैं। आप मेरे को खाने को नहीं देगी...चलेगा। मेरे को कोई गम नहीं। आप मेरे से इत्ता प्रेम से बोलीं..., मेरे को ये बहुत अच्छा लगा। पहली बार कोई इत्ता प्रेम से बोला..., आज मेरे माँ-बाप होते...'
'तो तुम्हारे माता-पिता नहीं हैं?'
होंठ भींच उसने सिर हिला अपने अश्रुपूर्ण नेत्र झुका लिए।
'ओह...' महिला का स्वर संवेदना से भीग गया, '...अच्छा, तुम्हारा नाम क्या है?'
'धोंडू।'
'देखो धोंडू..., तुम चाहते हो न, तुमसे भी लोग प्रेम से बात करें, तुम्हें सम्मान दें, दुत्कारें नहीं?'
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