कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँप्रकाश माहेश्वरी
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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।
तुरंत हाथ जोड़ कंपित स्वर में थरथरा उठी, ''...अ...आप भैया की शिकायत करने आए हैं?''
''तुमने ऐसा कैसे सोच लिया?''
''भैया स्कूल से आए तो उनकी शर्ट फटी हुई थी। माँ ने नाराज़ होकर डाँटा तो बोले, 'एक सहपाठी से झगड़ा हो गया था, उसमें फट गई।' ''
''...?''
तिवारीजी के मस्तिष्क में सैकड़ों घंटे एक साथ बजने लगे। बनवारी ने बजाय उनका नाम लेने के, किसी छात्र से झगड़े की काल्पनिक बात क्यों कही होगी? वे अवाक् लड़की का मुख देखते रह गए।
उनके मनोभावों से अनजान, लड़की रौ में उन्हें याचनाभरी नजरों से ताके जा रही थी, ''प्लीज सर।...आप पिताजी से शिकायत मत करिएगा...''
''...?''
''...वे बहुत नाराज़ होंगे। भैया को पीटेंगे, कल ही टी-शर्ट दिलवाई और आज झगड़े में फाड़ लाया।''
''कल ही दिलवाई?'' तिवारीजी ने साश्चर्य दुहराया, ''बेटी?...यह टी-शर्ट कल खरीदी थी?''
''जी।''
वे किंचित परेशान से लगे, ''...जब कल ही खरीदी थी तो 'शाला गणवेश' की सफ़ेद शर्ट लेनी थी। यह 'टी-शर्ट' क्यों ली?''
''बहुत ढूँढ़ी थी, सर। सफ़ेद शर्ट कहीं नहीं मिली।''
''कैसी बातें करती हो?'' वे चकराए, ''सफ़ेद शर्ट तो हर रेडीमेड स्टोर्स में मिलती है।...किसी में भी चले जाओ।''
लड़की का चेहरा यकायक सकुचा गया। उसने नज़रें झुका लीं, ''हम लोग कपड़े वहाँ से थोड़े ही खरीदते हैं, सर।''
''...फिर?''
''...वो...'' वह बुरी तरह संकोच में गड़ पाँव के अँगूठे से फर्श कुरेदने लगी, ''...वो जो...जो वो...पुराने कपड़े बेचते हैं न...उन...उनके पास से...''
तिवारीजी हज़ारों फीट गहरे गह्वर में धम्म से समा गए। उनका कंठ हठात् भर्रा गया, ''...लेकिन...बेटी?. जो शाला का गणवेश है...''
''बहुत ढूँढ़ा था, सर...'' लड़की का स्वर भी भारी हो गया था, ''...सबके ठेलों पर देख लिया था...लगातार तीन हाट से देख रहे थे...किसी के पास नहीं मिला।''
तिवारीजी का हृदय वेदना से चूर-चूर हो गया, ''फिर इसे क्यों ले लिया, बिटिया?...स्कूल में तो ये स्वीकृत है नहीं!''
''फिर क्या करते, सर?...भैया की पिछली शर्ट इतनी गल गई थी...'' लड़की का गला यकायक बुरी तरह भर्रा गया। उसके शब्द वहीं के वहीं घुटकर रह गए। रुलाई रोकने के लिए उसने मुँह फेर चुन्नी मुख में ठूंस ली।
तिवारीजी को भी अपनी रुलाई रोकना दुश्वार हो गया। उन्होंने नज़रें उठाकर देखा। लड़की सिर झुकाए...होंठों को कसकर भींचती...ज़मीन में अँगूठे से छेद करती....आंसुओं के सैलाब को रोकने का भरसक यत्न कर रही थी।
तिवारीजी से अब और देखते नहीं बना। उन्होंने मुँह फेर लिया। उनका दिल भर आया था।
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- पापा, आओ !
- आव नहीं? आदर नहीं...
- गुरु-दक्षिणा
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- लतखोरीलाल की उधारी