लोगों की राय

कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

335 पाठक हैं

‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

तिवारीजी ने कड़कते स्वर में पूछा, ''क्या बात है?''

'कुछ नहीं' के भावार्थ में उसने हौले से सिर हिलाया।

''फिर यहाँ क्यों बैठे हो?...घर नहीं गए अभी तक?''

कुछ कहने के लिए उसके होंठ थरथराए...एक-दो मर्तबा कोशिश की। फिर सिर झुका बस्ता उठाया और पलटकर मेन गेट की ओर बढ़ लिया। तिवारीजी कठोर नज़रों से उसे जाता देखते रहे। शाला का मैदान बहुत बड़ा था, उसे पार करने में बनवारी को 3-4 मिनट लगे। तिवारीजी तब तक वहीं खड़े रहे। बनवारी गेट के बाहर निकला, तिवारीजी अब अपने घर के लिए मुड़े।

तभी उनकी निगाह स्तंभ के पास गड्ड-मड्ड कर फेंके एक कागज पर गई। कागज किसी कापी में से फाड़ा हुआ लगता था। उन्हें ध्यान आया, जब वे बनवारी के पीछे आकर खड़े हुए थे, बनवारी के हाथ में यही कागज था और वह एकटक इसे देखता गहरे सोच में डूबा हुआ था। तिवारीजी को देखते ही उसने हड़बड़ाकर वह कागज अपने पीछे मुट्ठी में भींच लिया था। बस्ता उठाते समय संभवतः उसके हाथ से छूट गया।

कुछ सोच तिवारीजी आगे बढ़े और झुककर उसे उठा लिया। उसकी तह ठीक कर उन्होंने उसे अपनी हथेली पर फैलाया। उन्हें संबोधित कर बनवारी ने दो पंक्तियाँ लिख अधूरी छोड़ दी थीं।

पढ़कर तिवारीजी 2-3 सेकेंड खड़े रहे। इसके पश्चात वे वापस कार्यालय की ओर मुड़े।

चपरासी कार्यालय की खिड़कियों बंद कर दरवाजा लगा रहा था। तिवारीजी ने दरवाजा खुलवा छात्रों का 'भर्ती रजिस्टर' निकलवाया।

आंखों पर चश्मा लगा वे मेज पर झुके।

शाम ढल चुकी थी। अँधेरे की कालिमा शनैः-शनैः अपने पैर पसार रही थी। गड्ढों से बचने के लिए तिवारी जी बेहद सावधानी से स्कूटर चला रहे थे।

शहर की इस कालोनी में वे पहली बार आए थे। उन्होंने परचून की एक दुकान के सामने स्कूटर रोका और दुकानदार से बनवारी के घर का पता पूछ आगे बड़े।

स्ट्रीट लाइट के तीसरे खंभे के बाद आटा चक्की थी। आटा चक्की के पास वाली गली में उसका घर था।

तिवारीजी ने आटा चक्की के सामने स्कूटर खड़ा किया और पैदल गली में घुसे।

दो-तीन बच्चे वहाँ खेल रहे थे। पूछने पर उन्होंने बनवारी का घर बतला दिया। हर घर के सामने ओटले बने हुए थे। तिवारीजी बनवारी के ओटले पर चढ़े।

द्वार बंद थे।

खुलवाने के लिए उन्होंने कालबेल के लिए नज़र दौड़ाई। फिर खटखटाने वास्ते साँकल पर हाथ रखा। द्वार मात्र भिड़काए हुए थे, हाथ रखते ही खुल गए। तिवारीजी अंदर आए। सामने एक तेरह-चौदह वर्षीया लड़की दरी पर बैठी पढ़ाई कर रही थी। उसका पूरा ध्यान लिखने में था। तिवारीजी के आने का उसे आभास तक नहीं हुआ।

तिवारीजी ने वहीं से आवाज लगाई, ''बनवारीलाल?''

''कौन है?'' लड़की का अब ध्यान भंग हुआ। उसने पेन रख साश्चर्य उन्हंग निहारा।

''बनवारीलाल है?''

''भैया तो टाइपिंग क्लास गए हैं...आप कौन हैं?'' वह आदरपूर्वक खड़ी हो गई।

''मैं उसके स्कूल का प्रिंसिपल...''

प्रिंसिपल! सुनते ही होंठों-होंठों में दुहरा वह भय से पीली पड़ गई।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

लोगों की राय

No reviews for this book