कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँप्रकाश माहेश्वरी
|
10 पाठकों को प्रिय 335 पाठक हैं |
‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।
सामने ही किल्ली पर बनवारी की पुरानी शर्ट टँगी हुई थी...जगह-जगह से गली हुई...कई जगहों से टके लगी हुई। उसकी हालत इतनी बदहाल हो चुकी थी कि उसे अब और पहनने के लिए कहना, बनवारी पर वाकई घोर अत्याचार होता। उनका मन रो पड़ा।
हा! गरीबी इंसान को कितना बेबस कर देती है।
जेब में रखे बनवारी के पत्र के वे चंद शब्द उनके मस्तिष्क में हथौड़े से चोट करने लगे, '....आपको टी-शर्ट के लिए एकदम गुस्सा नहीं करना था, सर। इसे जिस मजबूरी में खरीदा है वह मेरा परिवार ही जानता है...'
तिवारीजी के दिल में सैकड़ों शूल खच्च-खच्च चुभने लगे। उफ़! यह क्या कर दिया उन्होंने?..इस विपन्न परिवार पर कैसा घोर अमानुषिक अत्याचार कर बैठे? वे अब मन-ही-मन पछताने लगे। वाकई उन्हें एकदम क्रोधित नहीं हो जाना था। अनुशासन का अर्थ यह तो नहीं कि बिना पूछे-ताछे एकदम छात्र पर पिल पड़ें? एक तरफ़ वे हैं, जो छात्रों को 'क्रोध पाप का मूल है...' पढ़ाकर भी अमल नहीं कर सके; दूजी तरफ बनवारीलाल है जो 'गुरु की महिमा अनंत....' रटकर न सिर्फ गुनता है, वरन जीवन में उतार गुरु की गलती नजरअंदाज कर, गुरु का मान घर में कम न हो...सोच गुरु का अपराध अपने सिर ले लेता है कि 'शर्ट किसी सहपाठी से झगड़े में फट गई...!'
तिवारीजी का हृदय यकायक भर आया। पुराने जमाने में तो शिष्य शिक्षा संपन्न होने के पश्चात गुरु को 'गुरु-दक्षिणा' देते थे, बनवारी ने शिक्षा समाप्ति के पूर्व ही अपने गुरु को 'गुरु-दक्षिणा' अर्पित कर दी थी उनका मान उनकी गरिमा अपने माता-पिता की नजरों में कायम रखकर!
बनवारीलाल के लिए वे श्रद्धा से अभिभूत हो उठे। आए थे उसकी शिकायत करने, अब उसकी संभाव्य पिटाई का सोच छटपटाने लगे। बनवारी की बहन रूपा ने रोते-रोते बतला दिया था, ''...पिताजी दोपहर की पाली में ड्यूटी पर गए हैं, रात दस बजे लौटेंगे...माँ ने शर्ट रफू तो कर दी थी लेकिन सुबह...यदि उनकी नज़र पड़ गई तो...?''
भाई के लिए बेचारी रह-रहकर तड़पने लगी।
तिवारीजी का हृदय भी अंदर ही अंदर अपराध बोध से घुटने लगा। वे वहीं बिछी चारपाई पर धम्म से बैठ गए।
बेचारा बनवारी! बिना बात पिट जाएगा। शाला में तो बेकसूर अपमानित हुआ ही...घर पर भी?
उनका कलेजा मुँह को आने लगा।
तभी द्वार पर एक मध्यवयी महिला प्रगट हुई। गरीबी की मार ने उसे असमय बूढ़ा बना दिया था। रूपा ने आँसू पोंछ तिवारीजी को परिचय दिया, ''माँ हैं...'' फिर माँ के निकट आने पर कंपित स्वर में फुसफुसाई ''माँ! भैया के बड़े गुरुजी!''
सुनते ही माँ के चेहरे पर भय की स्याही पुत गई। फौरन आँचल सिर पर ओढ़ वे हाथ जोड़ आजिजी करने लगीं, ''बनवारी को माफ कर दीजिए बड़े गुरुजी। वह ऐसा उत्पाती लड़का सिरे से नहीं है। राम जाने कैसे उस लड़के से उलझ गया...''
तिवारीजी तड़प उठे। तत्क्षण उन्होंने बनवारी की माँ को टोका, ''आप गलत समझ रही हैं, बहनजी, बनवारी का किसी भी छात्र से झगड़ा नहीं हुआ था।''
''फिर?''
''वह शर्ट....'' तिवारीजी का कंठ पश्चात्ताप से भरी गया, ''...मेरे हाथों फट गई थी।''
"...!"
''जी हाँ..., मेरे हाथों झूमा-झटकी...''
|
- पापा, आओ !
- आव नहीं? आदर नहीं...
- गुरु-दक्षिणा
- लतखोरीलाल की गफलत
- कर्मयोगी
- कालिख
- मैं पात-पात...
- मेरी परमानेंट नायिका
- प्रतिहिंसा
- अनोखा अंदाज़
- अंत का आरंभ
- लतखोरीलाल की उधारी