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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

साढ़े बारह बजे पेशाब-पानी की 10 मिनट की छोटी छुट्टी होती थी। उसे ढूँढ़ते हुए उसके दो मित्र दौड़ते हुए उसके पास आए और उसे दिलासा देने का यत्न किया। कक्षा में चलने का अनुरोध भी किया। मगर बनवारी का हृदय इस कदर भरा हुआ था कि उसने अश्रुपूर्ण नेत्रों से इनकार कर दिया। 10 मिनट की छुट्टी पूरी हो गई, शाला पुनः लगने की घंटी बजी, दोनों सहपाठी उठे और भारी हृदय मुड़-मुड़कर उसे देखते वापस कक्षा में चले गए। बनवारी वैसा ही सिर झुकाए चुपचाप बैठा रहा।

दोपहर के दो बज गए। मध्याह्न भोजन की पैंतालिस मिनट की छुट्टी हुई। तिवारीजी अपने कार्यालय के बाहर आए। गलियारे में मुड़ते हुए हठात् उनकी नज़र सामने मैदान के छोर पर गई। वहाँ एक पेड़ के पीछे छिपा बनवारीलाल सरोज उन्हें ही घूर रहा था। तिवारीजी से नज़रें मिलते ही वह पहले छिपा, फिर तेज-तेज डग भरता हुआ, उधर के उधर सड़क की तरफ़ निकल गया।

तिवारीजी अपने घर रवाना हुए। उनका घर शाला के पीछे वाली कालोनी में पाँच मिनट के फासले पर था।

भोजन कर वे लौटे। पौने तीन बजे शाला पुनः आरंभ हुई। काम में उलझ जाने के कारण वे बनवारी-प्रकरण को भूल गए। शाम पाँच बजे पूरी छुट्टी हुई। पीने छह बजे के लगभग वे हाथ की फाइल निपटाकर कार्यालय के बाहर आए।

बाहर पूर्ण निस्तब्धता थी। खेल का मैदान सुनसान था। गलियारे में भी कोई नहीं था। पूरी शाला में उस समय उनके अलावा मात्र एक चपरासी और था। पूरी शाला भाँय-भाँय कर रही थी। छुट्टी होने के बाद शाला का यह विशाल परिसर किसी निर्जन भयावह गढ़ी जैसा लगता था।

तिवारीजी को इसकी आदत हो गई थी। वे रोज़ इसी वक्त लौटते थे।

घर जाने के पहले वे गलियारे में दाईं ओर मुड़े। तभी सामने उन्हें कुछ खटका हुआ। उन्हें लगा गलियारे के छोर पर...स्तंभ की ओट में कोई छिपकर बैठा है।

छिपने वाला यद्यपि पूरी तरह स्तंभ की आड़ में था, मगर अस्ताचलगामी सूर्य की रश्मियों में उसकी लंबोतरी परछाईं गलियारे में स्पष्ट दिख रही थी। वे सोच में डूब गए-भला कौन छिपा होगा वहाँ?...इस समय?

वे बिना आहट दबे कदमों उधर बड़े।

15-20 कदम चलने के बाद उन्हें छिपने वाले की पीठ नजर आई। अगला कदम-बढ़ाते ही वे पहचान गए। उस मोटे स्तंभ के पीछे...ओटले पर पैर लटकाए बनवारी बैठा था।

उनका माथा ठनका।

यह इस समय...यहाँ बैठा क्या कर रहा है?

बनवारी की गतिविधियाँ अब उनके मन में संदेहों को जन्म देने लगीं। लगभग 15 दिन पूर्व एक अन्य शाला के वरिष्ठ अध्यापक को उनके दो छात्रों ने एकांत में घेरकर पीट दिया था।

कहीं बनवारी भी कुछ इसी तरह के गुंताड़े में...?

उनकी मुट्ठियाँ कस गईं।

शरीर से वे बलिष्ठ थे। इस उम्र में भी भुसारे (मुँह अँधेरे) उठ कसरत करते थे। बनवारीलाल जैसे 2-3 युवकों से तो वे अकेले निहत्थे निपट लेते। बिना किसी भय वे उसके पीछे जाकर खड़े हो गए।

आहट पाकर बनवारी ने गरदन घुमाई। तिवारीजी को अकस्मात अपने पीछे देख वह हड़बड़ाकर खड़ा हो गया।

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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