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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

''सर, प्लीज़...'' बनवारी ने कापी छोड़ तुरंत उनका हाथ पकड़ कालर छुड़ाना चाहा, ''...मेरी बात तो सुन लीजिए प्लीज़।''

''तुम्हें मालूम है न, शाला का गणवेश क्या है?''

''जी हाँ. जी हाँ...''

''फिर ये...ऐसी 'टी-शर्ट' पहनकर क्यों आ गए?'' उन्होंने उसका कालर झझकोरा।

''जी...जी...दरअसल...''

''आज तो माफ़ किए देता हूँ...'' उसका स्पष्टीकरण सुने बगैर तिवारीजी ने चेतावनी दी, ''आइंदा दुबारा पहनकर आए तो एक मिनट में टी.सी. दे दूँगा, समझे?''

उसकी गरदन पुनः झकझोर वे पलटे और क्रोध से भड़भड़ाते हुए कक्षा के बाहर चले गए।

पूरी कक्षा में सन्नाटा खिंच गया।

तिवारीजी के जाने के बाद भी कई क्षणों तक पूरी कक्षा बुत बनी बैठी रही। कोई भी अपनी जगह से हिला तक नहीं।

अंततः कक्षा शिक्षक मोदीजी ने स्तब्धता भंग करने का यत्न किया। गला खँखार मंद स्वर में बनवारीलाल को बैठने के लिए कहा।

अनसुना कर बनवारीलाल वैसा ही खड़ा रहा। सिर झुकाए...उदास, उद्विग्न...प्लान मुख!

मोदी सर ने भारी कंठ से पुनः बैठने को कहा, ''बैठ जाओ, बनवारी!''

बनवारी होंठ भींच सिर झुकाए हौले से बैठ गया।

उससे नज़रें उठाए नहीं उठ रही थीं। रह-रहकर उसका हाथ अपने कालर पर जा रहा था। उसकी टी-शर्ट झूमा-झटकी में कालर के पास दो-तीन जगह से फट गई थी। उसे जितना दुख पूरी कक्षा के सम्मुख अपमानित होने से हो रहा था, उससे कहीं अधिक अपनी टी-शर्ट के फटने का हो रहा था।

शेष पीरियड वह मुँह लटकाए गमगीन बैठा रहा।

उधर मोदी सर का मन भी पढाने में नहीं लगा। तिवारीजी के अनुशासन का डर नहीं होता तो वे कक्षा छोड़कर चले जाते। पढ़ाने का अभिनय करते वे किसी तरह समय व्यतीत करने का यत्न करते रहे।

पीरियड की घंटी हुई। वे अपना रजिस्टर उठा कक्षा के बाहर चले गए।

उनके जाते ही बनवारी धीरे से उठा और उदास, भारी कदमों से, दूसरे

अध्यापक के आने से पूर्व, कक्षा से निकल गया। समस्त छात्र संवेदना से उसे जाता देखते रहे।

बनवारी टूटे मन मुँह लटकाए शाला के बाहर आया। शाला के मैदान में उस समय कोई नहीं था। पूरा मैदान पार कर वह एक पेड़ के नीचे जाकर बैठ गया।

उसका अंतर्मन बुरी तरह से रो रहा था। बिना वजह इस तरह अपमानित होने के कारण उसे बेहद मर्मांतक पीड़ा हो रही थी। कक्षा के प्रथम सात-आठ छात्रों में उसका शुमार होता था। यदि उसने वाकई कोई अपराध किया होता तो संभवतः उसे इतनी शर्मिंदगी महसूस नहीं होती। मगर बिना बात...बिना अपराध...मात्र ऐसी शर्ट के लिए...? उसका हृदय भर आया। अब कैसे जाएगा अपने उन्हीं सहपाठियों के बीच?

वह घुटनों में मुँह छिपा फफक-फफककर रो पड़ा। उसकी उद्विग्नता, बेचैनी का एक कारण और था। उसकी टी-शर्ट!...कल ही खरीदी थी और आज...?

उसकी बेचैनी बढ़ती गई।

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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