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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

आठ-दस मिनट यह संग्राम चलता रहा। ताईजी, धम-धम पैर पटकती हुई अपने कक्ष में गईं और धड़ाम से दरवाजा बंद कर उसे कोप-कक्ष में तब्दील कर लिया। क्रोध में उनकी आवाज़ फट जाती थी। जंगली भैंसे की तरह वह रह-रहकर डकरा रही थीं, '...मेरे ही घर में आकर मेरा अपमान कर रही है? समझती क्या है अपने आप को?'

उसने तमतमाते हुए ताऊजी को दफ्तर फोन लगाया। थोड़ी ही देर बाद ताऊजी दुम हिलाते हुए भागे-भागे आए। आते ही पहले ताईजी के कक्ष में घुस गए। दोनों में आधे घंटे तक गुफ्तगू होती रही। फिर दोनों दादाजी-दादीजी के कमरे की तरफ आए। ताईजी अंदर नहीं गईं, बाहर खड़ी रही। ताऊजी धीर-गंभीर मुद्रा में अंदर दाखिल हुए।

दादीजी भरी हुई बैठी थीं। आखिर इतने बड़े ऑफिसर की माँ हैं, उनकी जन्मदात्री! उसे पालने-पोसने, लायक बनाने वाली। माँ के अपमान को भला कौन बेटा सहन करता है? पूर्ण आत्मविश्वास से दादीजी ने शिकायती लहजे में कहा, '...बेटा सुगन?....आज तेरी महतारी ने...'

'मुझे सब मालूम है अम्मा।'

'अब तू ही बोल बेटा...'

'अम्मा?' ताऊजी का आदरयुक्त झल्लाया स्वर गूँजा, 'अच्छा लगता है यह सब?. इस तरह लड़ते हुए? आस-पास दूसरे ऑफीसरों के बंगले हैं। क्या सोचेंगे वे? कितनी जग-हँसाई होगी मेरी?...फैक्टरी के डायरेक्टरों को जब यह मालूम पड़ेगा, मेरी पोजीशन...'

दादीजी विस्फारित नेत्रों से बेटे को देखती रह गईं। क्षणमात्र में वे समझ गईं, बेटे को कितना कुछ मालूम है, अपनी जन्मदात्री माँ को कितना पहचानता है? कोखजाया ही आज उन्हें 'इज्जत...अदब...कायदे...ऊँच-नीच' सब कुछ समझा रहा था!

उनके नैन भर आए। एक शब्द भी न कहा। क्या फायदा कहने से? कोई पराया हो तो दोष भी दें, बहस करें। अपनी ही औलाद को क्या सफाई पेश करें?

उन्होंने किसी तरह आंसुओं को टपकने से रोका। ऐसे वक्त पति ने सहारा दिया। उनके जख्मों पर मानो मलहम लगाना चाहा। बीच में दखल दे ताऊजी से कहा, '...सोच रहा हूँ बेटा, गाँव छोड़े बहुत दिन हो गए हैं। अब हमें वापस भेज देते तो...'

ताऊजी ने शांति की साँस ली। वे शायद यही कहना चाह रहे थे।

और अगले ही दिन दादाजी-दादीजी वापस लौट आए। पहली और आखिरी मर्तबा गए थे ताऊजी के यहाँ। ऐसा मर्मांतक घाव लेकर लौटे थे कि दुबारा कभी इच्छा भी नहीं की वहाँ जाने की। मगर अब उन्हें वहीं जाना पड़ रहा था। उसी अपमान भरे घुटन-युक्त माहौल में। हमेशा-हमेशा के लिए। कैसे रहेंगे वे वहाँ? जब तक बप्पा रहेंगे, एक या दो दिन..., मानसिक सहारा रहेगा। उसके बाद?...बप्पा के लौटने के बाद?

रेवती के आंसू ढुलक पड़े।

कैसे सहन करेंगे दोनों ताईजी के उपेक्षा भरे बर्ताव को?

छोटे-से बच्चे हों तो घर से कहीं भाग जाएँ इस पकी उम्र में...जब दो कदमों का नहीं सूझ पाता...बिन सहारे के उठा नहीं जाता...,कैसे काटेंगे शेष जिंदगी?

रेवती के गले में कुछ चुभता-सा महसूस हुआ।

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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