कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँप्रकाश माहेश्वरी
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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।
'जरा भी ध्यान नहीं रखते तुम लोग...' ताईजी फुफकारी, '....अब एक काम करना। बाकी दूध का दही जमा देना। दोपहर में उसी की लस्सी बना दोनों को...'
दादीजी ने सुना तो सन्न रह गईं।
काटो तो खून नहीं।
यह इज्जत!
पेट काट-काटकर जिस लड़के को इतना पढ़ाया-लिखाया, सम्मानजनक ओहदे के लायक बनाया, उसी की पत्नी ऐसे सम्मान से रख रही है?
अपमान से उनका तन-मन सुलग उठा। पार्वती दूध में मक्खी गिर जाने मात्र पर वह दूध नहीं देती थी....और यह बड़े घर की बेटी...कुत्ते का मुँह मारा हुआ दूध...?
छी...ई-ई-ऽ!
क्रोध से भभकती हुई वे कमरे में आई और दादाजी के हाथ से गिलास छीन लिया।
'अब जाने दो सुमेर की माँ...' दादाजी ने उन्हें शांत करने का यत्न किया, '...अपन स्वयं नाली में फेंक देते हैं।'
'नहीं!' अपमान से उनकी आवाज़ दहक रही थी, '...फिर उस काले दिल वाली को महसूस कैसे होगा?...उसे भी तो मालूम पड़ना चाहिए हमें उसकी काली करतूत पता चल गई है...'
दादाजी समझाते रह गए। ईश्वर का वास्ता देते रहे। मगर पति अपमान से विदग्ध दादीजी ने एक न सुनी। गिलास लेकर धम-धम करती रसोई में गईं।
उनकी चढ़ी मुखमुद्रा और हाथ में दूध का गिलास, देखते ही श्यामल वर्णीय ताईजी का चेहरा पूर्ण श्यामल हो गया।
दादीजी ने किसी तरह स्वयं को संयत करते हुए उन्हें तीखी नजरों से घूरा, '...बड़ी बहू! इनका पेट ठीक नहीं है। दूध नहीं लेंगे। बाकी दूध में मिला लो...'
'अरे-रे-रे यह क्या कर रही हैं?' ताईजी सकपकाई, '...यह शक्कर वाला है...'
'फिर सुखसागर (ताई-पुत्र) को दे देती हूँ...ले बेटा...' वहाँ से निकल रहे पोते की ओर दादीजी ने गिलास बढ़ाया।
'सागर अभी नहीं लेगा...' ताईजी बौखलाकर आगे बढ़ी।
'क्यों?'
'वो...वो बाद में लेगा...'
'बाद में क्यों?...ये क्यों नहीं?' दादीजी का स्वर थोड़ा उग्र हो गया।
'कहा न...'
'साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहतीं...' दादीजी प्रथम बार 'सास' के तेवर से दहाड़ीं, '...कुत्ते का मुँहमारा हुआ है।'
ताईजी का चेहरा तवे-सा काला हो गया।
दादीजी अंगारे-सी लाल हो गईं, '...हमारी जगह तुम्हारे माँ-बाप होते, तब भी यही करतीं?'
'आप अनाप-शनाप इल्लाम लगा रही हो...'
'फिर तुम स्वयं पी लो इसे।...लो...पियो,' क्रोधित दादीजी ने गिलास उनके होंठों से लगा दिया।
ताईजी ने पूरी ताकत से गिलास पर हाथ मार दूध फेंक दिया। गिलास टन्न से सामने दीवार से जा टकराया। पूरी रसोई में वह 'कुत्ते खाया' दूध बिखर गया।
इसी के साथ सास-बहू में वाक्-युद्ध आरंभ हो गया। बंगले में ज्वालामुखी फूट पड़े। दोनों तरफ से दावानल उगले जाने लगे। नौकर दुबककर अगल-बगल के कमरों में छिप तमाशा देखने लगे।
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- पापा, आओ !
- आव नहीं? आदर नहीं...
- गुरु-दक्षिणा
- लतखोरीलाल की गफलत
- कर्मयोगी
- कालिख
- मैं पात-पात...
- मेरी परमानेंट नायिका
- प्रतिहिंसा
- अनोखा अंदाज़
- अंत का आरंभ
- लतखोरीलाल की उधारी