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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

आखिर हारकर बप्पा ने दादाजी-दादीजी को भेजने का निर्णय कर लिया।

साढ़े तीन बज गए।

गाड़ी का समय हो गया था। जाने के लिए बप्पा उठ खड़े हुए। सहारा देकर उन्होंने दादाजी को उठाया। दादाजी का चेहरा एकदम विवर्ण हो गया। उनके झुर्रीदार चेहरे पर दर्द की असंख्य लकीरें उभर आईं। किसी बूचड़खाने में धकेला जा रहा हो, ऐसी दहशत छा गई उनकी मोतियाबिंदी आँखों में।

रेवती का हृदय तड़प उठा। दादाजी के मन की पीड़ा को वह अच्छी तरह समझ रही थी। ताईजी उनके संग कैसा व्यवहार करेंगी, इसकी कल्पना-मात्र से वे निढाल हुए जा रहे थे। पिछली बार के कटु अनुभव उन्हें भूले नहीं थे। उन्हें आज भी याद हैं वे दिन। तब पहुँचने पर शुरू के 4-6 दिन अच्छी तरह कटे थे। नौकर भी दोनों का सम्मान करते थे। उनके 'मालिक के माता-पिता हैं' सोचकर दौड़-दौड़ कर उनका काम करते थे। मगर बाद में जब देखा, मालकिन को स्वयं ही फिक्र नहीं है, उल्टे वे चिढ़ती हैं उनके नाम से, नौकरों ने भी तवज्जो देनी छोड़ दी।

सच भी है। नौकर अपनी मालकिन के रुख के अनुसार ही व्यवहार करेंगे। वे क्योंकर अपनी नौकरी खतरे में डालते?

दादाजी आवाज़ लगाते रहते, वे अनसुनाकर खिसक जाते। एक गिलास पानी के लिए भी दादाजी को उनकी गुहार करनी पड़ती। दादीजी भारी हृदय यह सब देखती रहतीं।

घर में सभी तरह के फल आते थे, फ्रिज भरा रहता, नौकर चोरी-छिपे खा लेते, मगर ताईजी दोनों को पूछती तक नहीं थीं। वे जिस तरह तरसा-तरसाकर उन दोनों को रख रही थीं, दादीजी का हृदय अंदर तक विदीर्ण हो जाता। जिस पुत्र को अनेकानेक तकलीफें सहन कर पाला, जिसकी उच्च शिक्षा के लिए अपने गहने तक बेच दिए, योग्य होने पर उसी की पत्नी इस तरह ओछा व्यवहार कर रही थी!

अपने प्रति की जा रही उपेक्षा को वे सह भी लेतीं मगर पति के प्रति की जा रही अपमानजनक उपेक्षा को अब वे सह नहीं पा रही थीं। उन्हें बिलकुल अच्छा नहीं लगता था कि थोड़े से फल या दूध के लिए पति नौकरों को बार-बार कहें।

वे पति पर झल्लाती, 'क्यों बोलते हो बार-बार।'

'फिर क्या करूँ?' दादाजी अवशता से दवा की गोली दिखलाते, 'डॉक्टर ने खाली पेट लेने से मना किया है। गाँव में जरूरत ही नहीं पड़ती थी बोलने की?...पार्वती स्वयं होकर सब...'

दादीजी चुप रह जातीं। आखिर हारकर उठतीं और रसोई में जा कुछ उठा लातीं। फ्रिज खोलते समय उनका हृदय 'अपराध बोध' से भर जाता। ऐसा लगता...जैसे चोरी कर रही हो।

मगर उस दिन तो हद हो गई। यूँ ताईजी दादाजी के लिए जब भी दूध भेजतीं, पानी मिला देती थीं, पहली बार दादीजी को मलाई जमी हुई नज़र आई। दादीजी का माथा ठनका। आज बहूरानी इतनी कृपावत् कैसे हो गई?

कुछ सोच उन्होंने दादाजी को गिलास ढककर रख देने को कहा और स्वयं दबे कदमों चलते हुए रसोई के करीब जा उधर की आहट लेने लगीं। ताईजी धीमे कड़क स्वरों में मुँहलगे नौकरों को घुडक रही थीं, '...टॉमी (कुत्ता) अंदर घुस कैसे गया?'

'पता नहीं मैडमजी..., इधर से माली गया था बगीची में..., उसीने जाली वाला दरवाज़ा...'

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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