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अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

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‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

रेवती ने चोर निगाहों से बप्पा को देखा। बप्पा सिर झुकाए किसी गहन चिंता में लीन थे। उनके मन में मच रहे तूफ़ान को रेवती भली-भांति महसूस कर रही थी। एक वे ही तो हैं जो दादाजी-दादीजी को ताऊजी के यहाँ नहीं भेजना चाह रहे, मगर ये चारों (माँ रेवती, रंजन, टिंकू) भी क्या करें? घर की हालत ने इन चारों को ऐसा सोचने के लिए विवश कर दिया था। बप्पा की पगार इतनी थी नहीं कि सबका गुजारा आराम से हो जाता। आधी पगार दादाजी-दादीजी की बीमारी, दवा, डॉक्टर, पथ्य में खर्च हो जाती। शेष में घर-खर्च चलाना मुश्किल हो जाता। बच्चों की अधिकांश फरमाइशें अधूरी रह जातीं। घर की परिस्थिति समझ तीनों बच्चे दूध, फल, कीमती कपड़े, सिनेमा आदि की जिद नहीं करते थे मगर पढ़ाई के खर्चों में वे कैसे कटौती कर सकते थे? फीस भी भरनी ज़रूरी, कापी-किताबें लाना भी जरूरी...? रंजन कंप्यूटर कोर्स करना चाहता था, रेवती सिलाई...? दो-ढाई वर्ष की मेहनत से दोनों घर को सहारा देने लायक हो जाते। मगर काफ़ी खींचतान करने के बावजूद महीने के आखिर में कुछ बच नहीं पाता। ऐसे में इन क्लासों के लिए फीस के पैसे कहाँ से आते? धीरे-धीरे उनके दिलों में यह धारणा घर करने लगी-यदि ताऊजी दोनों को अपने पास बुला लें...खर्चों में कितनी बचत हो जाया करे? वे बप्पा को समझाने का यत्न करते, ''...ताऊजी के पास इतना पैसा है, अच्छी नौकरी है, फ्री मेडिकल सुविधा है, नौकर-चाकर सब तो हैं..., दादाजी-दादीजी वहाँ आराम से रहेंगे।''

''तुम्हारा कहना सही है, बेटे...'' बप्पा सहमत होते हुए भी विवशता जतलाते, ''...मगर बिना बुलाए कैसे भेज दूँ?''

''हद है।...बेटे के पास जाने के लिए भी आमंत्रण की जरूरत?''

''जरूरत है, बेटे।...तुम्हारी ताईजी का जो स्वभाव है...''

''फिर आप ताऊजी को क्यों नहीं कहते? वे ताईजी को समझाएँगे।''

''समझाना ताईजी को नहीं है, समझना ताऊजी को है।''

''ऐं?''

तीनों को बप्पा की यह फ़िलासफ़ी कुछ समझ नहीं आती।

बप्पा मुस्कुराकर चुप हो जाते।

उनका दृढ़ विश्वास था माता-पिता की सेवा स्वयं की इच्छा शक्ति से होती है। 'पुत्र का कर्त्तव्य है' याद दिलाकर नहीं। पुत्र में यदि सेवा की भावना होगी, पत्नी लाख उग्र या झगड़ालू हो, उसे हर हाल में करनी होगी। पुत्र ही यदि इसे 'झंझट' समझे, दूर रहने की कोशिश करे तो पत्नी को क्या पड़ी है?

बप्पा अभी भी नहीं भेजते, मगर पिछले दिनों दादाजी चलते-चलते कई बार गिर पड़े। उनका मोतियाबिंद पक गया था, घुटनों का दर्द भी परेशान करता था। दादीजी का मोतियाबिंद भी धीरे-धीरे पक रहा था। डॉक्टर के अनुसार दोनों का ऑपरेशन करवाना अब अत्यंत ज़रूरी था। इधर रेवती भी बड़ी होती जा रही थी। दो-तीन वर्ष बाद उसे निबटाना होगा। घर में जो खर्चे लगे थे, उनके अनुसार उसकी शादी वास्ते पाँच हज़ार जमा करने भी दुश्वार थे। उस पर इन दो ऑपरेशनों के खर्चे...?

कहाँ से करेंगे ये सब?

सोच-सोच कर वे बावले हो उठते। रात-रात-भर उन्हें नींद नहीं आती। चिंता के कारण करवटें बदलते या उठकर भगवान के सम्मुख ध्यान लगाकर बैठ जाते। माँ बेचारी परेशान हो जाती। उनकी हिम्मत बँधाने की भरसक चेष्टा करतीं। मगर कब तक? क्या शब्दों की जुगाली से पैसों का इंतजाम हो जाता? कष्ट दूर हो जाते?

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    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

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