हमारी हुकूमत चलाने के लिए
लोहे का एक चौखटा था, जिसको स्टील-फ्रेम कहते हैं। उसमें १२०० से लेकर
१३५० तक आदमी थे। वे ही सदियों से हमारे हिन्दुस्तान का तन्त्र चलाते थे।
उनमें अधिक परदेसी लोग थे। उसका भी हिस्सा किया। लेकिन यह हिस्सा दो तरह
से हुआ। उसमें जितने अंग्रेज थे, वे चले गए। ५० फीसदी के करीब उनमें
अंग्रेज थे, उनमें चन्द ही रह गए, बाकी सब चले गए। बाकी जो रहे, उनमें से
५० फीसदी पाकिस्तान में चले गए। बाकी में से भी कई लोग हमारे धनिकों,
इन्डस्ट्रियलिस्टों (व्यवसायपतियों); के पास चले गए। नतीजा यह हुआ कि
हमारे पास चौथाई हिस्से की सर्विस बच रही। उसी से हम काम चलाते हैं। बहुत
से लोग समझते थे, खास तौर से अंग्रेज आफिसर सोचते थे कि इनका काम नहीं
चलेगा। जो सर्विस चलती थी, वह टूट गई, तो इनका काम कैसे चलेगा? लेकिन
हमारा काम चलता है।
उसके बाद हमारी जो मिल्कियत
थी, उसका भी हिस्सा किया। एक कुटुम्ब की मिल्कियत का हिस्सा करने में
कितना समय लग जाता है? यह काम चन्द रोज में नहीं होता। लेकिन हमने सारे
मुल्क के हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के रूप में, दो हिस्से किए। उसके लिए
हम किसी अदालत में नहीं गए। आपस में बैठकर यह सब कर लिया। पाकिस्तान चाहे
कुछ भी कहे, लेकिन मैं कहता हूँ कि अगर हमें पाकिस्तान को खत्म करना होता,
तो हम यह सब कभी न करते। हमने इस सब में उदारता दिखाई। हमने इस सब में
वैसा ही बरताव किया, जैसा छोटे भाई के साथ करना चाहिए। कोई भी स्वतंत्र
आदमी हमारे पक्ष में फैसला देगा। इस तरह से हमने सारी मिल्कियत का फैसला
कर लिया। जो कर्ज देना था और जो रुपया दूसरे मुल्कों से लेना था, उस सब का
भी फैसला किया।
इस सब के साथ-ही-साथ ४० लाख
लोगों को इधर से वहां भेज दिया, और ५० लाख लोगों को उधर से इस तरफ ले आए।
ये सब किस तरह से आए और गए? पैदल चलनेवालों की ६०-६० मील लम्बी कतारें थी,
दस-दस लाख आदमी एक काफिले में थे। दोनों तरफ से कतारें चलती थीं और वे दो
तीन महीनों तक चलती रहीं। ऊपर से पानी पड़ता था और नीचे भी पानी ही पानी
था। रोग फैल गया, कॉलरा फैल गया, खाने-पीने की बड़ी मुसीबत थी। इस तरह से
इन मुसीबतों में लोगों का अदला-बदला हुआ। राह में अमृतसर जैसा सिक्खों का
बड़ा शहर पड़ता था। सिक्खों ने हठ पकड़ ली कि हम इधर से मुसलमानों को नहीं
जाने देंगे। तब मैंने अमृतसर जाकर, उन्हें समझाया कि ऐसी बेवकूफी न करो।
उसमें राष्ट्रीय स्वयं-सेवक-संघवाले भी थे, तो मैंने उनसे भी कहा कि तुम
यह क्यों नहीं देखते हो कि हमारे दस लाख आदमी भी उधर पड़े हैं। लड़ना है, तो
लड़ने का ढंग भी सीखना चाहिए। तब उन लोगों ने मेरी बात मान ली और सब को
अमृतसर के बीच में से जाने दिया। हमारे लोग भी इधर चले आए।
इस सब हेराफेरी में हमने
कान्स्टीटयूएँट असेम्बली का जलसा भी किया। अपना कान्स्टीयूशन (संविधान)
बनाने की कोशिश न सिर्फ हमने जारी रक्खी, बल्कि करीब-करीब उसे पूरा कर
लिया। इतने लोग मारे गए, लाखों की मिल्कियत नहीं रही, लाखों के पास
खाना-पीना नहीं रहा, हजारों रोते-कलपने आदमी हमारे पास फरियाद करने आए।
उनको भी हमने, जहां तक बन पड़ा, आश्वासन दिया और साथ ही इतना काम भी किया।
इसके साथ देशी रियासतों का भी काम कर लिया। तो चार महीने में हमने इतनी
कार्रवाई की। इतना काम कोई भी सरकार करती, इतना बोझ किसी भी सरकार पर आता,
तो चाहे वह कितनी भी मजबूत सरकार क्यों न होती, उसके टूट जाने की संभावना
थी। लेकिन ईश्वर की कृपा से हमारी गवर्नमेंट जहाँ तक बन पड़ा, अपना काम
निबाहती रही। और इस सबमें हमारी इज्जत काफी बढ़ी है। हमने जूनागढ़ में जो
कुछ किया, काश्मीर में जो कुछ किया उससे लोगों को कुछ विश्वास आया कि यह
लोग भी कुछ ताकतवर हैं।
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