नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
राजा : (बीच में ही) कौन महारथी हैं वे?
मातलि : एक तो प्राचीनकाल में नृसिंह भगवान थे जिन्होंने अपने नखों से देवताओं के शत्रु हिरण्यकशिपु का पेट फाड़ डाला था।
राजा : (बीच में फिर टोककर) और दूसरे?
मातलि : और दूसरे आप हैं, जिन्होंने इस बार अपने पैने बाणों से इन्द्रलोक से राक्षसों का सफाया कर दिया है।
राजा : मातलि। यह सब तो भगवान इन्द्र की महिमा का फल है, मैं तो केवल निमित्त मात्र था।
सुनिये-
यदि किसी का कोई सेवक बहुत बड़ा काम करके आवे तो यही समझा जाना चाहिए कि स्वामी ने उसको वैसा काम सौंपकर उसका बड़ा भारी सम्मान किया है, बस उसी का वह फल होता है। यदि सूर्य अपने आगे-आगे अरुण को लेकर न जाय तो स्वयं अरुण में इतना सामर्थ्य कहां कि वह अन्धकार को दूर भगा सके।
मातलि : इस प्रकार की बातें करना आपको ही शोभा देता है। यह आपका बड़प्पन है।
(कुछ और आगे चलकर)
आयुष्मन्! यहां स्वर्ग में आपकी जो कीर्ति फैली है, जरा उसकी धाक तो देखिये।
क्योंकि?
देवता लोग आपकी यशोगाथा को गीतबद्ध करके उनको कल्पवृक्ष की लताओं के कपड़े पर उन रंगों से चित्रित कर रहे हैं, जो अप्सराओं के सिंगार करने के बाद बचे रह गये हैं।
राजा : मातलि! मैं जब यहां राक्षसों से युद्ध करने के लिए आया था तो उस समय राक्षसों से युद्ध का ही मेरे मन में ध्यान था। इस कारण मैं स्वर्ग का मार्ग भली प्रकार देख ही नहीं पाया था, उस समय मैं अपने ध्यान में ही मग्न था।
अब आप कृपा करके यह तो बतलाइये कि इस समय हम लोग पवन के किस तल पर चल रहे हैं?
मातलि : बताता हूं।
सुनिये-
इस समय हम उस तल पर चल रहे हैं जिसको भगवान ने अपने वामनावतार के समय जिस पर अपना द्वितीय चरण रखकर पवित्र कर दिया था। यहां 'परिवह' नामका वह पवन चला करता है जिसमें आकाशगंगा बहा करती है।
यह वही तल है जो अपनी वायु-धाराओं से नक्षत्रों को ठीक-ठीक चलाया करता है।
राजा : मातलि! अब मैं समझा हूं।
मातलि : क्या?
राजा : यही कि यहां पहुंचकर मेरे बाहर और भीतर, सभी इन्द्रियों के साथ-साथ मेरा अन्तरात्मा भी प्रसन्न हो उठा है, यह इसी कारण कि हम उस तल पर विचरण कर रहे हैं जिसमें 'परिवह' पवन और आकाशगंगा बहा करती है।
[रथ के पहियों को देखता है और कहता है-]
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