लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल

अभिज्ञान शाकुन्तल

कालिदास

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6162
आईएसबीएन :9788170287735

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

333 पाठक हैं

विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...

सातवां अंक

 

प्रथम दृश्य

[आकाश मार्ग से रथ पर आरुढ़ राजा और मातलि का प्रवेश।]


राजा : मातलि! मैंने तो केवल इन्द्र महाराज की आज्ञा का पालन मात्र ही किया था। किन्तु  जिस भव्यता से उन्होंने मेरा स्वागत-सत्कार किया है उसको देखते हुए तो मेरी सेवा बड़ी ही  तुच्छ-सी थी। मैं अपने को बड़ा असमर्थ-सा अनुभव कर रहा हूं।

मातलि : (मुस्कराकर) आयुष्मन्। मैं तो कुछ और ही समझ पाया हूं।

राजा : वह क्या?

मातलि : यही, कि एक-दूसरे का आदर-सत्कार करके आप दोनों का ही मन नहीं भर पाया है।
क्योंकि-
इन्द्र का इतना बड़ा काम करके भी आप वही समझ रहे हैं कि यह तो बड़ी तुच्छ-सी सेवा थी। इसका एकमात्र कारण यही है कि आप भगवान इन्द्र को बड़ा सम्मान देना चाह रहे हैं। और  उधर वे इन्द्र हैं, वे भी आपकी वीरता से इतने आश्चर्य में भर गये हैं कि अपनी सामर्थ्य से  आपका समुचित सत्कार करके भी वे यही समझ रहे हैं कि आपके योग्य स्वागत-सम्मान वे  कर ही नहीं पाये हैं।

राजा : मातलि! नहीं, यह बात नहीं है।
वहां से चलते समय मेरा जो सत्कार हुआ है उतने सत्कार-सम्मान की मैं तो कोई कल्पना ही नहीं कर सकता। उन्होंने तो सब देवताओं के देखते-देखते मुझे अपने साथ अपने आधे  सिंहासन पर बैठा दिया।
और फिर-
अपने वक्षस्थल पर शोभायमान हरिचन्दन से युक्त उस मन्दार
की माला को उन्होंने अपने गले से उतारकर मुस्कुराते हुए मेरे गले में डाल दिया।
इस मन्दार माला को प्राप्त करने के लिए तो जयन्त तक बड़ी ललचाई आंखों से देख रहा था।

मातलि : आयुष्मन्! जरा मुझे यह तो बताओ कि वह ऐसा कौन-सा सम्मान है जिसे देवराज  इन्द्र से पाने के आप योग्य नहीं हैं? देखो- इन्द्र जैसे सदा सुख का जीवन बिताने वाले दो ही ऐसे हुए हैं जिन्होंने स्वर्ग से राक्षस रूपी  कांटों को उखाड़कर फेंक दिया है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book