नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
।।अभिज्ञान शाकुन्तलम्।।
प्रथम अंक
मंगलाचरण
या सृष्टि: स्त्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री
येद्धेकालंविधत्त: श्रुतिविषयगुणा: प्राणवन्त: या स्थिता व्याप्य विश्वम्।
यामाहु: सर्वबीजप्रकृतिरिति यया प्राणिन: प्राणवन्त:
प्रत्यक्षाभि: प्रपन्नस्तनुभिरवतु वरताभिरष्टाभिरीश:।।
[जिस सृष्टि को ब्रह्मा ने सबसे पहले बनाया, वह अग्नि जो विधि के साथ दी हुई हवन सामग्री ग्रहण करती है? वह होता जिसे यज्ञ करने का काम मिला है वह चन्द्र और सूर्य जो दिन और रात का समय निर्धारित करते हैं, वह आकाश जिसका गुण शब्द है और जो संसार भर में रमा हुआ है, वह पृथ्वी जो सब बीजों को उत्पन्न करने वाली बताई जाती है, और वह वायु जिसके कारण सब जीव जी रहे हैं अर्थात् उस सृष्टि अग्नि, होता, सूर्य चन्द्र, आकाश, पृथ्वी और वायु इन आठ प्रत्यक्ष रूपों में जो भगवान शिव सबको दिखाई देते हैं, वे शिव आप लोगों का कल्याण करें।
[सूत्रधार का प्रवेश]
सूत्रधार : अब अधिक विलम्ब करना उचित नहीं है। (इधर-उधर देखकर) आर्ये, यदि आपने श्रृंगार कर लिया हो तो शीघ्र इधर आ जाओ।
[नटी आती है।]
नटी : आ गई आर्यपुत्र, आज्ञा कीजिए! आज कौन-सा नाटक खेलना है?
सूत्रधार : आर्ये, हमारे महाराज विक्रमादित्य तो रस और भाव का चमत्कार दिखाने वाले कलाकारों के आश्रयदाता हैं और आज उनकी सभा में बड़े-बड़े विद्वान् पधारे हुए हैं। इसलिए उचित यही होगा कि आज इन्हें कालिदास कवि का नया रचा हुआ अभिज्ञान शाकुन्तल ही दिखाना चाहिए। तुम जाकर सब पात्रों को उनके उनके अनुकूल ठीक से वस्त्राभूषण आदि से सुसज्जित होने को कहो।
नटी : आपने तो कलाकारों को पहले से ही इतना प्रशिक्षित कर दिया है कि अब किसी अन्य के कुछ करने-धरने के लिए शेष नहीं है। उनकी ओर कोई भी अंगुली नहीं उठा सकता।
सूत्रधार : (मुस्कुराकर) आर्ये! तुम कह तो रही हो, किन्तु जब तक विद्वान् लोग नाटक को देखकर यह न मान लें कि नाटक बढ़िया है, तब तक मैं नाटक को सफल नहीं समझ सकता। क्योंकि पात्रों को चाहे जितने भी अच्छे ढंग से सजाया जाय, सिखाया जाय, फिर भी मन को सन्तोष नहीं होता।
नटी : (विनय के साथ) आर्य, आप ठीक कहते हैं, तो अब आप जो आज्ञा दें, वही किया जाय।
सूत्रधार : आर्ये! हम नाटक के विषय में विचार-विमर्श करें, इससे पहले यह उत्तम होगा कि सभा में विराजमान गुणीजनों के कानों को आनन्दविभोर करने वाला कोई रोचक-सा गीत हो जाय तो उचित होगा।
नटी : तो किस प्राकर का गीत आरम्भ किया जाय?
सूत्रधार : ग्रीष्म ऋतु अभी आरम्भ ही हो रही है, इस कारण बहुत ही सुहावनी भी लगती है। इस समय यदि ग्रीष्म ऋतु के अनुकूल ही कोई राग छेड़ो तो उत्तम होगा। देखो-
इन दिनों नहाने में जल बड़ा सुहाता है, बार-बार नहाने को मन करता है। पाटल में बसा हुआ वन का पवन भी बड़ा ही अच्छा लगता है। वृक्षों की घनी छाया थकान को तिटा देती है और नींद भी अच्छी आती है और फिर आजकल की संध्या तो इतनी सुहावनी होती है कि उसका वर्णन करना ही कठिन है।
नटी : ठीक है, ऐसा ही सही। (गाने लगती है।)
जिन शिरीष-सुमनों के सुकुमार केसरदल की शिखायें,
चूम-चूमकर रसमय भौरे फिर-फिर उड़ बैठ-बैठ जायें।
दया द्रवित हाथों से चुनकर लेकर सहृदयता से सत्त्वर
रचकर कर्णफूल फिर कानों में पहन रही प्रमदायें।।
सूत्रधार : आर्ये! बहुत सुन्दर, बहुत अच्छा गाया। तुम्हारे इस राग को सुनकर लोग ऐसे बेसुध-से हो गए हैं कि यह सारी रंगशाला ही चित्रलिखित-सी दिखाई देने लगी है।
(कुछ क्षण रुककर) तो अब इनको इस समय कौन-सा नाटक दिखाकर इनका मनोरंजन किया जाय?
नटी : आपने स्वयं ही तो पहले कहा था कि आज इनको महाकवि
कालिदास का नव-रचित अभिज्ञान शाकुन्तल नाटक दिखाकर इनका मनोरंजन किया जाय।
सूत्रधार : अरे हां! मैं तो भूल ही गया था। तुमने अच्छा स्मरण कराया। वास्तव में तुम्हारा गीत इतना मनोहर था कि उसके राग ने मेरे मन को बलपूर्वक ठीक वैसे ही खींच लिया जिस प्रकार कि...
[कान लगाकर सुनते हुए]
यह वेग से दौड़ता हुआ हरिण राजा दुष्यन्त को यहां खींच लाया है।
[दोनों का मंच से प्रस्थान]
(प्रस्तावना समाप्त)
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