नाटक-एकाँकी >> अभिज्ञान शाकुन्तल अभिज्ञान शाकुन्तलकालिदास
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विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवादित अभिज्ञान शाकुन्तल का नया रूप...
[सारथि के साथ रथ पर बैठे धनुष-बाण धारण किये हुए, मृग का पीछा करते हुए राजा दुष्यन्त प्रविष्ट होते हैं।]
सारथी : (राजा और मृग को देखकर) आयुष्मान! इस काले सुन्दर मृग पर अपनी दृष्टि गड़ाए, और धनुष को प्रत्यंचा पर चढ़ाए हुये इस समय आप ऐसे दिखाई दे रहे हैं मानो साक्षात् पिनाकी मृग का पीछा कर रहे हों।
दुष्यन्त : सूत! यह हरिण तो हमें बहुत दूर तक खींचकर ले आया है। और अभी फिर भी बार-बार पीछे मुड़कर इस रथ को एकटक देखते हुए यह सुन्दर लगने वाला हरिण मेरा बाण लगने के डर से अपने पिछले आधे शरीर को सिकोड़कर आगे के भाग से मिलाता हुआ, देखो, कैसा दौड़ता ही चला जा रहा है। दौड़ते-दौड़ते थक गया है, इस कारण उसके मुख से आधी चबाई हुई कुशा के तिनके मार्ग में गिरते जा रहे हैं। डर के कारण यह ऐसी लम्बी-लम्बी छलांगें भर रहा है कि इसके पांव धरती पर पड़ते से दिखाई ही नहीं देते। ऐसा लग रहा है कि मानो यह आकाश में दौड़ता चला जा रहा हो।
[आश्चर्य करता हुआ, इधर-उधर देखकर]
हम तो इस हिरण के पीछे-पीछे ही चले आ रहे हैं, फिर भी यह हिरण हमारी आंखों से कैसे और किधर को ओझल हो गया है?
सारथी : आयुष्मन्! यह भूमि बड़ी ऊबड़-खाबड़ है, रथ ठीक से नहीं चल पा रहा था, इस कारण मैंने घोड़ों की रास खींचकर उनकी गति मध्यम कर दी थी, मृग अपनी गति से दौड़ता हुआ हमसे दूर निकल गया है, इसलिए वह हमारी आंखों से ओझल हो गया है। किन्तु आगे की भूमि समतल दिखाई देती है, वहां रथ की गति तीव्र हो जाएगी और तब आप मृग को हाथ में आया ही समझिए।
राजा : ठीक है, अब समतल भूमि आ गई है। घोड़ों की रास ढीली छोड़ दो, जिससे वे अपनी गति से दौड़ सकें।
सारथी : जैसी आयुष्मान की आज्ञा! (रास ढीली करता है, रथ का वेग देखकर) आयुष्मन्! देखिए-देखिए-
[घोड़ों की गति दिखाकर]
मेरे रास ढीली करते ही ये घोड़े अपने आगे का शरीर फैलाकर और माथे की चामर सीधी खड़ी करके, इतने वेग से दौड़ रहे हैं कि इनकी टापों से उठी धूल भी इनको नहीं छू पा रही है। ऐसा जान पड़ता है कि ये घोड़े हरिण के ताथ दौड़ में होड़ कर रहे हों।
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