संस्मरण >> सुनहु तात यह अकथ कहानी सुनहु तात यह अकथ कहानीशिवानी
|
6 पाठकों को प्रिय 15 पाठक हैं |
प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......
कहना व्यर्थ है, तत्काल छलकती आधा दर्जन बोतलें लेकर नौकर वापस आ गया।
माँ की परिहासप्रियता का दूसरा प्रसंग और भी पुराना है, मेरे बड़े भाई त्रिभुवन, पीलीभीत में पुलिस सुपरिटेंडेंट थे। उन्हीं दिनों एक कुख्यात डाकू, वशीर की बेगम पकड़ी गई थी, और कड़े पहरे में जेल में बंदिनी थी। नित्य, उसके विषय में मनगढन्त कहानियाँ सुनने को मिलती रहतीं। वह अनिंद्य सुन्दरी है, बड़ीबड़ी आँखें हैं, सुतवाँ नाक है आदि। 'सब बकवास है' --मेरे भाई ने कहा-- छोटा-सा कद है, हमारी माँ की कद-काठी की है। माँ सुनती रही।
दूसरे दिन, हम रात का खाना खा रहे थे कि हड़बड़ाता सन्तरी आयाहुजूर बेगम वशीर आई है आपसे मिलने!
क्या?–भाई गरजे-किसने आने दिया उसे यहाँ ? लाओ फौरन फोन जेलर को मिलाओ।
पर फोन लाने से पहले ही, बुर्के और चुस्त चूड़ीदार में, बेगम ठुनकती हमारे सामने खड़ी हो गई-हुजूर रहम की भीख माँगने आई हूँ। अजी, किसकी हिम्मत है जो इस घर से हमें ले जाए?
उन्होंने नकाब उठाया तो हम सबको साँप सूंघ गया। सन्तरियों की भीड़ में हँसी की फुलझड़ी छोड़ती बेगम बोली-अजी तुम्हारा यह पुलिस कप्तान क्या खाक कप्तानी करेगा, जो अपनी माँ को ही नहीं पहचान पाया।
हमारे नाना, लखनऊ के प्रसिद्ध चिकित्सक ही नहीं थे, जाने-माने समाजसेवी भी थे। स्त्री-शिक्षा को बढ़ाने के लिए अपने मित्र बंगाल के सुप्रसिद्ध लेखक रमेशचन्द्र दत्त के साथ मिलकर लाला पुत्तूलाल की धर्मशाला के प्रांगण में उन्होंने आज के महिला कॉलेज की नींव रखी थी। पहले कालीबाड़ी में एक पेड़ के नीचे यह स्कूल खोला गया था, और प्रथम पाँच छात्राओं में से एक थी मेरी माँ। वाद में इसी स्कूल का रूप बदला। श्री बटलर का क्लास में प्रथम आने के लिए माँ को इनाम में दिया ऐतिहासिक एल्बम, अभी भी मेरे छोटे भाई के पास है-Presented to Leciawati Pant for standing Ist in her class.
हमारी विदा हुई, तो हम अम्मा से लिपटकर रोने लगी-माँ बताती-अम्मा ने जवाब में, मुझे जोर से चिकोटी काटकर कहा-देख मुन्नी एक बात याद रखना-ससुराल में भूलकर भी कभी मायके का बखान मत करना। बहू से मायके का वखान, संसार की कोई भी सास नहीं सह सकती।
नानी से माँ को मिली यह अनमोल सीख, फिर बारी-बारी हम बहनों को भी विदा से पूर्व मिली। मायके के एकदम विपरीत परिवेश में, जब माँ की डोली उतरी, तो माँ बताती-अपनी सास के बारे में बहुत सुना था, वड़ी तेजतर्रार हैं, नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देतीं। ससुर जी ने उन्हें खूब पढ़ाया है-वड़ी सुन्दर लिखावट है, एकदम मुक्ताक्षर। देखा तो वैसा ही पाया। दादी का बड़ा-सा चित्र, अभी भी हमारे मायके के पूजा-गृह में लगा है। पार्श्व में पितामह, अगल-बगल रामलक्ष्मण से दोनों पुत्र। प्रशस्त ललाट पर चवन्नी-भर की बिन्दी और रोली का लम्बा कूमाचली पिठ्या, तिलक। तीखी खड्ग के धार-सी नाक, नुकीली चिबुक, छींट का घेरदार लहँगा, मदीने का दुपट्टा। चित्र में दादी एकदम क्वीन विक्टोरिया की मुद्रा में दोनों हाथ घुटनों पर धरे बैठी है।
दादी जैसी उग्रतेजी थीं, वैसा ही था अनुशासन। मामा विलायत गए, तो उनके म्लेच्छों के देश जाकर पढ़ने का विरादरी का दंड हमारी माँ को भी ससुराल में भोगना पड़ा। इकलौते भाई के विवाह में जाने की अनुमति भी दादी ने माँ को नहीं दी। कहा-ले, रंगीन चुनरी ओढ़नी पहन, छत पर बैठ भाई की बारात देख ले।
विवाह के पूरे सत्रह वर्ष बाद जब समाज के ठेकेदारों द्वारा युवा सवर्ण छात्रों के विलायतगमन का दंड समाप्त मान लिया गया, तब ही माँ अपने मायके जा पाई। फिर भी समाज या सास के प्रति, माँ के सरल हृदय में कोई दुर्भावना नहीं थी। उनकी जिहा कितनी ही तीखी हो. माँ की क्षमाशीलता भव्य थी।
अपनी माँ से हमने जो दूसरी अमूल्य निधि विरासत में पाई, वह थी, उनकी सुसंस्कृत साहित्यिक रुचि। पिता के साथ विभिन्न प्रान्तों में रहने से उन्होंने अनेक भाषाएँ सीखीं। जहाँ कोई नई पुस्तक देखती, चट से खरीदकर सहेज लेती। झवेरचन्द्र मेघाणी, कन्हैयालाल मुंशी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, प्रेमचंद, शरतचन्द्र, बंकिम चटर्जी की पुस्तकों के अतिरिक्त बहुमूल्य पत्रों का संकलन भी उनके एक काठ के कलमदान में बन्द रहता। रमेशदत्त, मालवीय जी आदि के पत्रों की अनमोल मंजूषा वह काठ का कलमदान, वास्तव में एक भानुमति का पिटारा ही था। सुई से लेकर, वेश्या के कंठ का मूंगा तक उसमें पा लो। वह मूंगा हमारी दादी ने बड़े दाम देकर किसी वेश्या से खरीदा था-माँ ने बताया। वह कहती-अरी वेश्या के कंठ का मूंगा जिसके कंठ में रहता है, वह सदा-सुहागन बनी राज करती है। वेश्या क्या कभी विधवा होती है?
मूंगे का वह अलभ्य दाना मुझे मिला था, जो मेरी ही लापरवाही से कहीं खो गया और पचास की उम्र छूने से पहले शायद उसका दंड भी मिल गया।
अम्मा के कलमदान की अन्य निधियों में था वसंत कुसुमाकर, जो मरणासन्न व्यक्ति को जीवनदान दिला दे, कई याचक उसे माँगने आते। अन्य देसी औषधि थी मातृहीन की माँ कही जानेवाली बड़ी हरें। वे उसके बगल में विराजमान रहती-यस्य माता गृहे नास्ति तस्य माता हरीतकी। माँ का अनुभूत सत्य था। माँ के दूध में सात बार हर्र घिसकर पिला दो कल तक पस्त बीमार बच्चा भी किलकारियाँ भरने लगेगा-वह कहती। इसी तरह माँ का अन्य नुस्खा था कि दाड़िम के पुराने छिलके को शहद में घिसकर पिला दे, बस खाँसी दूर। बड़ों को खाँसी हो तो अकरकण, कुलेजन और कत्थे के टुकड़े, सरौते के काट मुँह में ढाब लो खाँसी का डमरू बन्द। आँखें उठे तो, असली कच्चा खोया बन्द आँखों पर बाँध लो। माँ की लिखी नवप्रसूता के लिए पंजीरी, और नवजात शिशु के लिए काजल बनाने की दो अपूर्व विधियों की लिस्ट मेरे पास धरी है-किन्तु उसकी सामग्री खरीदना अब सम्भव नहीं रहा।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book