संस्मरण >> सुनहु तात यह अकथ कहानी सुनहु तात यह अकथ कहानीशिवानी
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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......
माँ के उस कलमदान-रूपी क्षीरसागर के अन्य रत्न थे-भोजपत्र, कस्तूरी, बघनखा,
मालती बसंत, घर का बना गुलकंद और सबसे अधिक मूल्यवान, बिल्ली की फली, जो
देखने में मरे सूखे छबूंदर जैसी लगती थी, पर माँ के अनुसार प्रभाव में
साक्षात कुबेरी छत्र थी। जिसके घर में बिल्ली की फली रहे, वहाँ लक्ष्मी पैर
काटकर बैठ जाती है, माँ का कहना था। बड़ी तपस्या और साहस से पाया था उसने
इसे। जब बिल्ली प्रसव की पीड़ा झेलती है, तो हाथ में मोटा कपड़ा लपेटे उस फली
को लेना होता है, कहीं नोच दिया तो बस। कहते हैं प्रसव-पीड़ा उठने पर बिल्ली
और मृत्यु की अन्तिम साँसें ले रहे हाथी, मरने के लिए निभृत एकान्त ढूँढ़ता
है, या घने जंगल का सीमान्त या कोई टूटा-फूटा बँडहर। और बिल्ली को
प्रसव-पीड़ा शेरनी-सा खूखार बना देती है। जाहिर है, यह रत्न ऐरे-गैरे के हाथ
में नहीं लगता। हमारे लाख गिड़गिड़ाने पर वह फली अपनी क्षणिक दिव्य छटा दिखा,
पुनः कलमदान में, कच्छप-सी मूंडी छिपा लेती।
पठन-पाठन में अम्मा की रुचि सदा बेजोड़ रही। आलोचना में, वह कभी व्यर्थ की लल्लो-चप्पो नहीं करती। श्री हजारीप्रसाद जी की पुस्तक, पुनर्नवा पढ़ी तो बोली-हजारीप्रसाद यहीं है ना?
मैं डर गई, पता नहीं अब कौन-सी फरमाइश करेगी।
हैं तो यहीं-मैंने कहा।
-तब ला, एक कागज-कलम, मैंने अभी-अभी पुनर्नवा पढ़ी है।
मैं घबराई, माँ का पंडित जी से परिचय तब का था, जब हम उनकी शिष्याएँ थीं। 'पुनर्नवा' पसन्द नहीं आई तो उनकी मुँहफट प्रतिक्रिया कैसी हो सकती थी, यह मैं जानती थी।
माँ ने दो ही पंक्तियाँ लिखीं पर आज के 'विमोचन' लोकार्पण के आलोचक उन पंक्तियों से बहुत कुछ सीख सकते हैं-
प्रिय चि. हजारीप्रसाद-सस्नेह शुभाशीष।
कहते हैं पुनर्नवा आँखों की क्लांति दूर कर उन्हें नवीन ज्योति देती है।
तुम्हारी पुनर्नवा ने मेरे हृदय को नवीन ज्योति दी है।
अमृतलाल नागर जी माँ से मिलने आते तो दोनों गुजराती में देर तक बतियाते। जब नागर जी को पद्मविभूषण मिला तो अम्मा बोली-मैं तो नागर को यह सम्मान बहुत पहले दे चुकी थी। आहा, क़लम का कैसा अद्भुत चितेरा है नागर, दिखने में भी खाँटी ब्राह्मण, बुद्धि में भी।
अब मुझे लगता है अम्मा के हाथ में क़लम होती तो वह स्वयं पटीयसी लेखिका होती। उसका कहानी सुनाने का ढंग ही ऐसा होता था कि उसके अंग्रेजी दाँ पौत्र-पौत्रियाँ भी उन्हें घेरकर बैठ जाते। श्रोताओं को मुग्ध करने की कोशिश को उनका वार्धक्य भी पराजित नहीं कर सका। कभी सरस लघ गल्प कभी किसी संस्मरण का गुरुत्व और मनमोहक विस्तार। विषयांतर होने पर, शाखामृगी की-सी सहज छलाँग और वैसी ही अकृत्रिम अभिव्यक्ति। ऐसा लगता जैसे आँखों के आगे किसी दामी चिकने किमखाब के थान की परतें सरसराकर खुलती जा रही हैं।
अरबों किस्से कैद थे मां की विलक्षण स्मृति में हैदराबाद निजाम के रामपुर आने पर सौ-सौ के नोटों को जलाकर, कैसे उनकी चाय बनाई गई थी। या रामपुर के मोनाबाजार की यह घटना, जब मरहूम रजाअली पर्दानशीन चीफ और होम साहव की बेगमों के बीच बिना किसी सूचना के धड़धड़ाते निकल गए थे, और कितनी ही कमसिन बेगमें, जिन्होंने कभी किसी पराए मर्द का चेहरा भी नहीं देखा था, बेहोश हो-होकर गिर पड़ी थीं। अपने बचपन के भी सैकड़ों किस्से गिनाती अम्मा-हम छोटी थीं तो हमारे सिरहाने, चाँदी के कटोरदान में दो इमरतियाँ धर दी जातीं। जब हमें रात को भूख लगती हम खा लेतीं। एक दिन बाबू का मन मचला और उन्होंने एक इमरती खा ली। आधी रात को हमने तूफान मचा दिया-बाबू हमार इमरती खाई लिहिन। खिसियाए बाबू ने आधी रात को, कब्र की दुकान खुलवाई, इमरती लाए तब हमारा रोना-धोना बन्द हुआ।
ऐसे लाड़ में पली अम्मा का ब्याह हुआ, तो ससुराल थी परम पुरातनपंथी, कर्मकांड प्रिय। लखनवी बहू के पहुंचने से पूर्व ही रथानीय महिलावृंद में ईर्ष्यालु खुसुर-पुसुर होने लगी-मायके की चलन इसकी, किरस्तानी है। सुना है, मेम पढ़ाने आती थी। एक पैर में खोट भी है।
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