संस्मरण >> सुनहु तात यह अकथ कहानी सुनहु तात यह अकथ कहानीशिवानी
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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......
दूसरा चेहरा उभरता है, मुन्ना का! माँ की निष्कपट प्रेमभाजन। नाम था मोहिनी,
रूप में भी गुण में भी मोहिनी थी वह। अस्सी वर्ष की वयस में अभी भी किसी
आलमगीर इमारत की भाँति वह उतनी ही दबंग लगती है। आज उसकी आँखों की ज्योति
लगभग चली गई, श्रवण-शक्ति भी समाप्त हो चुकी है, अनेक रोगों से जीर्ण शरीर
अशक्त भी हो गया है। किन्तु माँ से सीखी उसकी उदार सहिष्णुता क्षीण नहीं हुई।
दस वर्ष की थी, तो भुन्ना का विवाह हुआ, पर एक ही महीने में वैधव्य तक्षक ने
डंस लिया। समृद्ध परिवार में विवाह हुआ था, किन्तु पति के मरते ही
ससुरालवालों से उसे मायके भेज दिया। कुछ वर्ष दो सुदर्शन भाइयों का सहारा
मिलता रहा। फिर एक दिन अलमस्त बड़े भाई चन्द्रलाल, जिन्हें 'चनी मस्तान' कहा
जाता था, शिकार करने गए और नहीं लौटे। तीसरे दिन चाईना पीक पर उनकी लाशही
मिली। दूसरे भाई पूरन दाज्यू, तब यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे। उनका भी
व्यक्तित्व सुदर्शन था, देख लो तो भूख भागे। उस पर उतने ही स्नेही भी। अचानक,
उन्हें तब के लाइलाज महारोग क्षय ने धर दबोचा। मेरे चाचा उन्हें दिल्ली हकीम
अजमल खाँ के पास इलाज के लिए ले गए। किन्तु कालस्य कुटिला गति : मृत्यु को अब
तक कौन पराजित कर सका है? आठ महीने तक, उन दिनों की वह असाध्य बीमारी भोगकर
वे भी चले गए। मुन्ना की वयस, अठारह वर्ष की हुई तो चाचा, उसे माँ आनन्दमयी
के आश्रम में पहुँचा आए। अम्मा उसे देखने गई तो अप्सरा-सी सुन्दर मुन्ना
घुटनों पर सिर छिपाए चुपचाप बैठी थी। दूसरे ही दिन उसका सिर घुटा, दीक्षा दी
जानेवाली थी। अम्मा ने आव देखा न ताव, उनका हाथ पकड़ हमारे यहाँ ले आई। यही
हमारी माँ की विशेषता थी। न्यायसंगत निर्णय लेने में उसे क्षण-भर का विलम्ब
नहीं होता था।
-अजी, यह कोई उम्र है जोगन बनने की? अब से मुन्ना हमारे पास रहेगी, जैसे मैंने सात बेटियों को पाला, इसे भी पाल लूंगी। जहाँ मेरी बेटियाँ पढ़ रही हैं, वहीं यह भी पढ़ेगी, माँ ने कहा। सप्ताह बीतते ही, मुन्ना हमारे साथ शान्तिनिकेतन आ गई और कलाभवन में नन्दलाल बसु की छात्रा बन गई। उसी शिक्षा के बूते, वह अवकाश ग्रहण करने तक अपने पैरों पर खड़ी रही। हमारे गृह में मुन्ना को हमारी ही तरह पहनने-ओढ़ने की पूर्ण स्वतन्त्रता थी। उसकी सूनी कलाइयों में एक बार फिर काँच की चूड़ियाँ छनकी, उसे बिन्दी लगाई गई, रंगीन साड़ियों में उसका रूप और खिल उठा।
देख लड़की-माँ ने कहा-अपना मन साफ है तो किसका भय? दुनिया को मारो गोली। समाज तो 'सिर॑ण' (बिच्छू बूटी) का पत्ता है, उल्टा थामो तो हथेली झनझनाए, सीधा थामो तो भी झनझनाए।
अपने इस दुःसाहसी कदम के लिए, सभी सुधारकों की भाँति माँ ने भी बहुत कुछ सुना। बिरादरी ने उसे धमकियाँ दीं, बदनाम किया-रामपुर के होममिनिस्टर की पत्नी है, नवाब के हरम के लिए हीरा जुटा रही है। तक कहा गया। किन्तु माँ की एक ही अग्निगर्भा दृष्टि ने इन मिथ्यापवादियों को भस्म कर दिया।
-जोगन बनकर दस पाप कर लेती तो तुम गीदड़ों की जबान नहीं खुलती। यहाँ कौन ऐसा माई का लाल है जिसकी चादर में दाग नहीं है? गिनाऊँ नाम?
माँ की उस एक ही गरज ने पत्थर उठाए समाज की भुजा नीची कर दी थी। सबको अपने शीशमहल दीखने लगे।
मनुष्य जाति की उद्भट उद्भ्रान्ति, विकार दौर्बल्य एवं निर्मम नियति, माँ के सुदीर्घ जीवन को, अनेक तिक्त मधुर अनुभवों से समृद्ध कर गई थी। इसके अतिरिक्त जीवन-भर, प्रवासिनी बने रहने से विभिन्न प्रांतों के लौकिक एवं प्राकृतिक प्रभाव ने भी समवेत रूप से माँ को जीवन का प्रकांड ज्ञान और उदार हृदय दे दिया था, कई भाषाओं के ज्ञान सहित। यह ज्ञान शुष्क पांडित्य न था। एकाधिक बार जीवन से मृत्यु की संलग्नता एवं कालगति के वैचित्र्य की चश्मदीद गवाह होने से उसे मनुष्यमात्र के प्रति एक अनूठे ममत्व से भर दिया था। हमने उसकी सहिष्णुता तथा क्षमाशीलता उम्र के साथ क्रमशः बलवती ही होती देखीं।
जीवन की क्षणभंगुरता ने, जहाँ माँ की दार्शनिकता को प्रखर किया, वहीं बहुभाषा ज्ञान ने उसकी लेखनी को भी निपुण बना दिया था।
-कितनी मौतें देख चुकी हूँ और अभी न जाने कितनी और देखनी हैं। उन्होंने मेरी बीमारी की सूचना पाकर मुझे लिखा था-बुढ़ापे का सबसे बड़ा अभिशाप यह है कि लोग हमसे असलियत छिपाने लगते हैं। यह सोचकर कि हमारी अशक्त अवस्था यह धक्का झेल नहीं पाएगी। किन्तु कैसी व्यर्थ धारणा है यह उनकी? वार्धक्य मनुष्य की अनेक शक्तियाँ क्षीण कर देता है किन्तु उसकी अन्तर्दृष्टि को उतना ही मजबूत बना देता है। आँखें जा चुकी हैं, कान से भी कम सुनने लगी हूँ फिर भी, अनहोनी के ताले की कुंजी मेरे पास अब भी है। मैं जान लेती हूँ कि मेरे किस बच्चे के द्वार पर, विपत्ति डैने फड़फड़ा रही है। तुम कैसी हो? क्या बीमारी है। एक ही बात कहनी है, अब मेरे जाने से पहले तुम कोई मत जाना। सहते-सहते पत्थर हो गई हूँ, फिर भी भारी घन का आघात इस मजबूत पत्थर को तोड़ सकता है।
आघात भी क्या एक-आध खाए थे माँ ने? पहले सुदर्शन युवा बड़े जामाता गए, एक ही वर्ष में अपने पति की बरसी कर, बड़ी पुत्री भी फिर गई। पति विछोह हुआ, पति के बाद परिवार के कर्ता बने लक्ष्मण जैसे आज्ञाकारी प्रिय देवर भी गए। उस पर वैभव की स्वर्णिम सोपान से अन्त समय आते-आते वह एकदम नीचे आ गई थीं। माँ आलोड़नपूर्ण जीवन में एक-से-एक कठिन क्षणों की जो दृष्टा एवं भोक्ता दोनों रही, दार्शनिक न बनती तो क्या बनती? किन्तु फिर भी अपनी प्राणवंत रसिकता माँ ने मृत्युपर्यन्त नहीं खोई। कुछ वर्ष पूर्व, अल्मोड़ा में मिट्टी का तेल प्रायः अप्राप्य हो चुका था। हमारा एक पुराना बनिया था, जिसके यहाँ से पिछले पचास वर्षों से घर का सामान आता था। अब उसका बेटा दुकान पर बैठता था। एक दिन माँ से मिलने आया, तो माँ ने मिट्टी का तेल न मिलने की चर्चा की-आमा (नानी), मेरे रहते आपको कमी? मैं कल ही भेज दूंगा। माँ ने गद्गद होकर, उसे चार खाली बोतलें भेज दीं। न बोतलें वापस आईं, न तेल। किसी ने माँ से कहा-कहाँ से आएगा तेल, उसने तो हमी से राशन के तेल का कनिस्तर, फलाँ अफसर के यहाँ भिजवाया है। यह सुनना था कि बस माँ का तन-बदन सुलग गया। अपराधी से जवाबतलबी को भृत्य भेजा गया, तो दो बोतल तेल लेकर लौटा, बोला, कह रहे थे-आमा (नानी) से कहना तेल अभी नहीं आया है। और किसी को ना बताएँ, उन्हीं के लिए जो बचा-खुचा तेल था, भेज रहा हूँ।
अम्मा ने अकेले कभी खाया-पकाया था जो अब करती? चट अपने भंडार से, संचित भरी तेल की दो बोतलें और भिजवाकर, दुकानदार को चिट्ठी लिखी। और भृत्य से कहा-जा अपने हाथ से उस अभागे को दे आना। कहना, माँ जी ने अभी चिट्ठी का जवाब मांगा है। संक्षिप्त पत्र की चुभती पंक्तियों का तीर सीधे उसके मर्मस्थल पर लगा रनकरा (ओ हरामखोर) ये चार मिट्टी तेल की भरी बोतलें भिजवा रही हूँ, साथ में एक दियासलाई की डिबिया भी रख दी है। तेल भरी बोतलें अपने सर पर उंडेल, दियासलाई दिखा देना। आज बैकुंठ चतुर्दशी है, सीधे बैकुंठ जाएगा।
-आमा
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