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संस्मरण >> सुनहु तात यह अकथ कहानी

सुनहु तात यह अकथ कहानी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5992
आईएसबीएन :81-8361-171-8

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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......


तभी सहसा नानाजी की साँस पलटी।
-मुझे यहाँ क्यों लिटाया है?
सब सिर झुकाए खड़े थे, कहते भी क्या? एक चुप हजार चुप।
उन्हें पुनः बिस्तर पर लिटाया गया तो सहसा उन्हें अपनी विचित्र यात्रा का स्मरण हो आया।
-एक अँधेरी सुरंग से मुझे ले गए-एक ज्योतिर्मय दिव्य पुंज के सामने मुझे खड़ा किया गया, तो एक कठोर कंठ स्वर उसी ज्योतिपुंज से गूंजा-इसे क्यों लाए? इसकी आयु तो अभी एक वर्ष तीन माह शेष है। मैंने तो उस बंगाली डॉक्टर को लाने को कहा था। इसे पृथ्वी पर पटक दो और उसे ले आओ। मुझे, बड़ी बेरहमी से नीचे पटक दिया गया। देखो ना, मेरी पीठ पर नीले दाग। जाओ लल्ला, उन्होंने मामा से कहा-देखकर आओ डॉक्टर ताल्लुकेदार को तो कुछ नहीं हुआ?


-कैसी बातें कर रहे हैं बाबू? वे ही तो अभी आपको डेथ सर्टिफिकेट देकर गए हैं। पर जल्लाद ताई की भविष्यवाणी शत-प्रतिशत सही रही। अपने मित्र को डेथ सर्टिफिकेट देकर, डॉक्टर ताल्लुकेदार स्वयं अपनी आकस्मिक मृत्यु का सन्देश सबको थमा स्तब्ध कर गए। मामा उनके यहाँ पहुँचे, तो देखा रोनापीटना मचा था। बताया गया अचानक गहन दिल के दौरे ने उनके प्राण ले लिए। और नाना, इस घटना के ठीक एक वर्ष तीन माह पश्चात् अपने मित्र से मिलने चले गए, जैसा ताई ने कहा था। मैंने तो नाना को नहीं देखा, पर मेरी माँ, नानी, मामा सभी इस अविश्वसनीय घटना और नाना की पीठ पर पड़ी नील के साक्षी थे।

क्या, विज्ञान कभी मृत्यु का यह शरसंधान समझा पाएगा?

माँ कहती थी कुछ सपने आनेवाली विपत्ति के सूचक होते हैं। सपने में अपना विवाह देख लो, या भैंसों का झुंड, या कोई सिर घुटी विधवा-तो अनहोनी से बस यही सम्भव है। देश-विदेश के मनोचिकित्सकों द्वारा कई प्रयत्न भी किए गए हैं, इसी प्रकार के स्वप्नों का अर्थ समझने के लिए, किन्तु सफलता नहीं मिली। ऐसे दुःस्वप्नों पर अनेक पुस्तकें भी उपलब्ध हैं, किन्तु मेरे जैसों के मन की जिज्ञासा शान्त नहीं होती। जब विज्ञान, कोई समुचित समाधान हमारे लिए नहीं ढूँढ़ पाता तो हम स्वयं अपने चित्त को बस यह कहकर शान्त कर लेते हैं कि दुःस्वप्न भविष्य की किसी दुर्घटना को लेकर हमें सावधान कर रहा है, पर यह चेतना हमारे अवचेतन में प्रविष्ट कौन कराता है? कौन है वह पराशक्ति? कैसे जोड़ती है वह हमारी पूर्वस्मृतियों को आनेवाले दुर्विपाक के चित्रों से? इधर, एक दुःस्वप्न मुझे बार-बार सहमा जाता है। देखती हूँ, मेरा विवाह हो रहा है। पीली साड़ी पहने, केश छिटकाए पटले पर बैठी हूँ। शरीर पर हल्दी-सरसों का उबटन, जैसे मज्जा को भी पीताभ आभा प्रदान कर गई है। द्वार पर महाराज ओरछा का सजा-सँवरा गयंद गंगाराम खड़ा हूँड़ हिला रहा है। कन्यादान कर रहे हैं मेरे चाचा, और स्वयं महाराज। रियासत की गायिका रमाबाई सेहरा गा रही हैं, और ढोलक की थाप से वातावरण को चीरती, रियासत की प्रसिद्ध लोकगायिका ईदिया और कोयल गा रही हैं बन्ना, क्या गरजता-तरजता कंठ है दोनों का। ऐसा कंठ जो कभी माइक का मोहताज नहीं रहता।

हाथ धनुष बन्ना ठाड़ो री
कोई जोड़ी तो मिला लो

कन्यादान को प्रस्तुत मेरी माँ और दोनों मामियों के हाथों में कलावे के कंकण भी बँधे हैं। तभी सहसा विवाह की घड़ी में एक भैंस यज्ञ-वेदी में घुस आती है, और हड़कम्प मच जाता है। चौंककर मेरी नींद टूट जाती है। मेरे ललाट पर हिमशीतल पसीना है। यह सपना मैं कई बार देख चुकी हूँ। जितनी बार देखा उतनी ही बार एक भयावह शंका से मेरा चित्त उद्वेलित हो उठता है साथ ही छप्पन वर्ष पूर्व अपने विवाह की संध्या की स्मृति भी मुझे विह्वल कर उठती है। अपने विवाह के क्षणों को कौन नारी विस्मृत कर पाती है? और अपनी मृत्यु को वार्धक्य के दिनों में कौन धीरे-धीरे अपनी ओर बढ़ते नहीं पाता?

मुझे लगता है कि हम जन्म-जन्मांतर के अनेक भावों को, जो मन में स्थिर हो गए हैं, अपने अवचेतन मन में सहेजकर रखते हैं। ये भाव हर समय स्मरण नहीं आते, किन्तु कभी-कभी स्वप्नों में आकर अन्य पुरानी स्मृतियों को भी उभार देते हैं। कालिदास ने स्मृतिक्षेप से उभरी हुई ऐसी ही स्मृति को, 'अबोधपूर्वा' कहा है। आज का शिक्षित वर्ग भले ही इस कालिदास-कालीन जन्मांतरवाद को हँसी में उड़ा दे, किन्तु यह सत्य है कि विभिन्न योनियों में भटकता मनुष्य अपने अवचेतन में न जाने कितने जन्मों की कितनी स्मृतियों के खंडहर सँजोए रखता है, और न जाने किस परिस्थिति में ये सँजोई स्मृतियाँ हठात् जाग उठती हैं। वे एक लेखक को कभी पर्युत्सुक बनाती हैं-कभी दुःस्वप्न के माध्यम से भयभीत करती हैं, और कभी आनंदोद्रेक भावना से गुदगुदाकर छोड़ जाती हैं।

स्मृतियाँ, इसी जन्म की भी, क्या एक-दो होती हैं?

जब कभी, अपने खंडहर बन गए मायके के गृह में जाती हूँ तो कभी सुखद रही सैकड़ों स्मृतियाँ, मन में घुमड़कर पागल बना देती हैं। कैसा आलमगीर वासस्थान था मेरा पितृगृह। शीशम के द्वार, बैठक की छत पर अद्भुत नक्काशी, बड़े-बड़े पत्थरों से पटा हमारा प्रांगण जहाँ हम खेले-कूदे बड़े हुए। लाइब्रेरी में सजा पुस्तकों का अम्बार। सामने सहन में खड़ा अखरोट का फलप्रसूत वृक्ष, मीठे आलूबुखारे, आड़ और नाशपाती के पेड़ों के वे झुरमुट।

हमारे बागीचे का क्रास-बीड़-दाडिम ऐसा मीठा होता था, जैसे कंधारी अनार। एक-से-एक प्रकांड विद्वान, अतिथि बनकर इसी हरे-भरे घर को कभी अपनी उपस्थिति से धन्य कर गए थे-रवीन्द्रनाथ ठाकुर, आचार्य कृपलानी, स्वामी नित्यानन्द।

स्वामीजी अलबत्ता कभी हमारी देहरी लाँधकर भीतर नहीं आए-सड़क से ही पितामह को हाँक लगाते-हरीराम हम बद्री केदार की यात्रा पर जा रहे हैं। लाख चिरौरी करने पर भी वे भीतर नहीं आते-हम संसार त्यागी हैं, गृहस्थ के गृह में हमारा आना वर्जित है।

हम वहीं जाकर उनके पैर छूते। मेरे पास अपनी हस्ताक्षर पुस्तिका में उनके हस्ताक्षर अभी भी ज्यों के त्यों धरे हैं।
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