संस्मरण >> सुनहु तात यह अकथ कहानी सुनहु तात यह अकथ कहानीशिवानी
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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......
सोने दे
तीन वर्ष पूर्व मैं एक साहित्य सम्मेलन में इटावा गई, तो मेरे मेजबान मुझे चम्बल घाटी दिखाने ले गए। वहाँ के देवी मन्दिर की विशेष ख्याति है। कहा जाता है कि चम्बल के अभयारण्य में छुपे दुर्दात दस्यु, डाका डालने से पूर्व अपनी-अपनी बन्दूकें देवी के चरणों में रख, उनका आशीर्वाद लेकर ही अपने घातक अभियान में निकलते हैं। उस घड़ी यदि कोई अपशगुन हुआ, तो वह अभियान स्थगित कर दिया जाता है। बहुत पहले, खोवाई नदी के सीमान्त पर शान्तिनिकेतन से कुछ दूर, देवी अट्टहास के मन्दिर को देख जैसी विचित्र अनभति हुई थी, वैसी ही वर्षों पश्चात् एक बार फिर काली की उस भयावह मूर्ति को देखकर हुई। चारों ओर अभेद्य दुर्ग-सी चट्टानें, मन्दिर के प्रांगण में खडा अश्वत्थ का विराट वृक्ष, और दूर से आती नगाड़ों की क्षीण ध्वनि । थोड़े फासले पर ही थी, प्रसिद्ध कवि 'वारसी' की कब्र, जिस पर उन्हीं की लिखी दो पंक्तियाँ अंकित हैं-
थक-सा गया हूँ, नींद आ रही है, सोने दे,
बहुत दिया है तेरा साथ जिन्दगी मैंने।
दीर्घ जीवन की अभिज्ञताओं से बहुत कुछ सीख, मैं आज जीवन के जिस मोड पर आ खड़ी हुई हूँ, जानती हूँ स्वयं अपने जीवन के सन्दर्भ में वारसी की यही पंक्तियाँ मैं भी दोहराऊँ, तो सार्थक लगेंगी। मृत्यु लम्बे-छोटे हर जीवन का ध्रुव सत्य है। आज तक, कौन ऐसा जन्मा है, जिसने मृत्यु की पूर्व निश्चित नियति के आगे सिर नहीं झुकाया? दीर्घ जीवन ने मुझे भी यही सिखाया है कि सदा जागते रहो।
यम के हृदय में करुणा नहीं है, समय आएगा तो वह आपको बिना किसी दलील के, घसीटकर ले जाएगा किन्तु किसी-न-किसी रूप में वह आपको चेतावनी अवश्य दे जाता है, इसी से हम इस कटु सत्य को सदैव स्मरण रखें-
यमस्य करुणा नास्ति
तस्मात् जाग्रत जाग्रत
मनुष्य के अन्तिम क्षण कितने ही पीड़ादायक क्यों न हों, मृत्यु ऐसी हृदयहीन भी नहीं है कि आपको अपनी आगमनी की पूर्व सूचना न दे। कई घटनाओं को स्वचक्षुओं से देखकर मेरा यह विश्वास और दृढ़ हुआ है। मृत्यु, किसी दुःस्वप्न के माध्यम से या स्वयं एक क्षण को अपना अशरीरी रूप दिखाकर, जानेवाले को सूचना अवश्य देती है। हमारा पढ़ा-लिखा सभ्य चित्त भले ही इन अन्धविश्वासों को अब हँसी में उड़ा देता है, लेकिन मृत्यु की छाया-समान सिर मुंडी, वैधव्य की साक्षात मूर्ति सफेद साड़ी, रूखे केश और चेहरे पर एक भयावह रिक्तता लिए एक विचित्र मूर्ति कइयों ने मृत्युपूर्व देखी है। एक बार जब मेरी माँ बीमार थी, तो सहसा भयभीत होकर आधी रात को मुझे पुकारने लगी-गौरा! गौरा!
-क्या है अम्मा?
-वह देख, सफेद कपड़े पहने रोशनदान से वह झाँक रही है, बुला रही है मुझे-
-कौन है अम्मा? वहाँ तो कुछ भी नहीं है-मैंने कहा तो वह बोली-जानती हूँ, मेरा अन्त निकट है-तेरे पास गंगाजल तो है ना?
-हाँ अम्मा. एक बोतल भरी धरी है।
--एक बोतल से क्या होगा? मैं तो 15 मार्च को गंगाजल से नहाऊँगी। फिर वह नींद में वापस लौट गई।
मैं निद्राहीन, लेटी-लेटी सोच रही थी, शायद लम्बी रुग्णता के चलते अपना मानसिक सन्तुलन खोने लगी है अम्मा, किन्तु ठीक 15 मार्च को ही जब वह गंगाजल से नहाकर सदा के लिए चली गई, तो लगा, रोशनदान से झाँक उसे पुकारनेवाली श्वेतवसना स्वयं मृत्यु ही थी। विज्ञान, क्या कभी इस विचित्र घटना की व्याख्या कर पाएगा?
दूसरी घटना भी लखनऊ की ही है-मेरी ममेरी बहन के पति तब बलरामपुर अस्पताल में भर्ती थे। सूचना पाते ही मैं उन्हें देखने दिल्ली से लखनऊ आई तो कहने लगे--अच्छा किया जो तू समय पर आ गई-देख वह मेरे सिरहाने खड़ी है, हँस-हँसकर कह रही है-चलो, चलो मेरे साथ।
-कौन है जीजा? यह तो सफेद स्टैंड है जिस पर से आपको ग्लूकोज की उलटबाँसी दी जा रही है। मैंने उन्हें गुदगुदाने की चेष्टा की।
-नहीं, यह मुझे आगाह कर रही है। 'नजीर' पढ़ा है ना तूने? वही कह रही है-
तन सूखा पीठ हुई कुबड़ी,
घोड़े पर जीन धरो बाबा।
-मैं तो चला। अच्छा किया तू आ गई।
यही उनकी अन्तिम चुहल थी।
हमारी एक रिश्ते की ताई थीं। उनका घोर कृष्ण वर्ण, पहाड़ की ब्राह्मणियों के गोरे भभूके रंग से एकदम विपरीत था। बाल-विधवा थीं, इसी से चेहरे पर एक विचित्र मर्दाना ठसका स्वयं आ गया था। कानों में भारी-भारी सोने की बालियाँ सदैव झूलते-झूलते, कानों की लोड़ियों को पलट समोसा-सा बना गई थीं। मैंने उन्हें कभी हँसते नहीं देखा। कंठ-स्वर था कर्कश। होंठों पर मूंछों की रेखा वयस के साथ-साथ प्रगाढ़ होती जा रही थी। पीठ पीछे हम उन्हें 'मूंछों वाली ताई' कहकर पुकारते। एक दिन हमारी ही असावधानी से, उन्होंने न जाने कैसे सुन लिया और चूँकि, मुख्य अपराधिनी मैं ही थी, मेरा कान पकड़, तीव्रता से खींचा और पीठ में दो धौल जमाए, उन्हें मैं आज भी नहीं भली हैं। उस दिन के बाद से हमने उनका नाम बदलकर रख दिया था जल्लाद। किन्तु जल्लाद से नारी का लालित्य छीन, बदले में विधाता ने उन्हें एक अदभुत शक्ति दी थी। किसी भी मरीज को देखते ही वे बता देती थीं कि वह बचेगा या नहीं। और यदि बचेगा, तो उसकी कितनी आयु शेष है। सुना था कि उनकी भविष्यवाणी कभी भी असत्य नहीं रही। एक ही बार वे चूकी, किन्तु उनका वह पराभव भी उनकी जीत रही और मृत्यु की हार।
मेरे रुग्ण नाना को देखने वे. बड़ी मान-मनौवल के पश्चात ही आई थी-अपनी सिद्धि पर उन्हें पूर्ण विश्वास था। सफेद धपधप करती इकलाई काले मखमली किनारे की श्वेत साड़ी, वैसा ही पूरी बाँह का सलूका, कानों में झाड़फानूसी लटकतीं बालियाँ। दोनों हाथ पीठ पीछे बाँध, ये नानाजी के सिरहाने, क्षण-भर को मौन खड़ी रहीं। नानाजी की इकहरी साँस उठती-गिरती उनकी छाती को, लोहार की धौंकनी-सा धौंक रही थी। हमारे कृशकाय नाना, लखनऊ के प्रसिद्ध चिकित्सक जिन्होंने न जाने कितनों को जीवनदान दिया था, आज स्वयं मृत्यु के द्वार पर हाथ बाँधे, चुपचाप पड़े थे, किसी को देखने-पहचानने में सर्वथा असमर्थ। दोनों आँखों की पुतलियाँ स्थिर होकर अचल हो असहाय टकटकी में बँध गई थीं।
सहसा ताई, एक झटके से कमरे के बाहर आ गईं। पीछे-पीछे हमारे चिन्तातुर मामा और अन्य आत्मीय स्वजन।
-अभी यह नहीं जाएगा।
उनका कर्कश स्वर, कमरे की निःसीम शून्यता में किसी प्राचीन गिरजाघर के घंटे-सा गूंज उठा।
-अभी एक वर्ष तीन माह शेष हैं इसके आयुष्य के!
इसी बीच नानाजी ने हठात् बटेर-सी गर्दन डाल दी। भीतर रोना-धोना मच गया। धरा को गंगाजल से सिक्त कर कुश बिछा मृतदेह धरा पर धर दी गई। अन्तिम संस्कार की सामग्री जुटाने का आयोजन होने लगा। उनके मित्र डॉ. ताल्लुकेदार डेथ सर्टिफिकेट भी देकर चले गए।
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