संस्मरण >> सुनहु तात यह अकथ कहानी सुनहु तात यह अकथ कहानीशिवानी
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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......
अब तो सोचती हूँ, समय ने संसार-त्यागी संन्यासी की परिभाषा भी बदल दी है।
क्लब क्लास में हवाई यात्रा सम्पन्न कर, आज के ये संसार-त्यागी साधु
किसी-न-किसी समृद्ध गृहस्वामी का आतिथ्य स्वीकार, सुदीर्घ प्रवास में बाहर गए
तो प्रायः विदेश के ही बने रह जाते हैं। फिर उनकी सोने में गुंथी रुद्राक्ष
की माला, बेशकीमती रेशम का गेरुआ कुरता, लुंगी, हाथ में दामी ओमेगा घड़ी और
जो अँगुलियाँ, कभी मात्र कमंडल थामती थीं उनमें सौलिटेयर हीरे की दमक दूर से
ही जता देती है कि इनमें वैराग्य कहाँ है। कई दूरदर्शी तपस्वियों ने तो विदेश
में ही अपने आश्रम भी बना लिए हैं, भले ही बाद को उनमें कई शेर की खाल में
छिपे गीदड़, डंडे मारकर स्वदेश भगा दिए गए हैं। पर तब तक वे अपनी आनेवाली
पीढ़ियों के लिए, यथेष्ट धन संचय कर ही चुके होते हैं।
पहले, साधु-सन्तों की देह से सहज उठती अगल चन्दन कस्तूरी की सुगन्ध, उनकी साधना से स्वयं प्रगाढ़ हो, श्रद्धा से भक्तों को झुमा देती थी। अब दामी आफ्टर शेव की सुगन्ध, उनके कमरे में आते ही अजीब पिचकारियाँ छोड़ने लगती है। बहुत पूर्व, ऐसी ही एक दबंग योगिनी से मेरी टक्कर हुई लन्दन में, मार्क्स एंड स्पेंसर स्टोर में। वे अपने लिए दामी विदेशी कंचुकी खरीद रही थीं। यह कैसी संन्यासिनी थी बाबा? सुना था कि उनका गाया हर सुरीला भजन, भक्तों को मन्त्रमुग्ध कर उठता है, उस पर वे विलक्षण स्मरणशक्ति की स्वामिनी भी हैं, और धारा प्रवाह संस्कृत तो बोलती ही थीं, अंग्रेजी पर भी उनका उतना ही अधिकार था। इस कथित संन्यासिनी ने, मुझे काकदृष्टि से देखा। कहा कुछ नहीं, पर वह तीक्ष्ण दृष्टि का तेवर देशी उस्तरे की धार-सा ही मुझे छील गया, और मैंने अपनी शंकित दृष्टि फेर ली।
किन्तु ऐसा भी नहीं कि सभी साधु पाखंडी हो चुके हैं। अभी भी पृथ्वी सच्चे सन्त स्वभाव साधकों से एकदम रिक्त नहीं हुई है। उनमें से एक थे, डॉ. निक्सन। अपने पौमरेनियन कुत्ते को लेकर वे प्रायः ही मेरे पिता से मिलने आते रहते। दन्तहीन शिशु-सा भोला चेहरा, स्निग्ध नीली आँखों की निर्दोष चावनी और चौबीस घंटे, होंठों से लगी निष्पाप हँसी। माँ कहती बिना गैरिक चोगे के सन्त थे वे। ऐसे ही दूसरे सन्त प्रकृति के विदेशी थे, जिम कॉरबेट। वे भी, मेरे पिता के मित्र थे, जब भी आते हंटले पामर का बिस्कुट का टिन हमारे लिए अवश्य लाते। साथ में उनकी बहन भी रहतीं। सुना था कि किसी मानसिक आघात से, उनकी बहन का दिमाग फिर गया है, इसी से भाई उन्हें अकेली नहीं छोड़ते, जहाँ जाते हैं, उन्हें साथ ले जाते हैं। जितनी देर वे बैठी रहती, अकारण हँसती रहतीं। किसी चक्षुदोष के कारण वे एक आँख भी हठात बन्द कर लेती तो लगता आँख मार रही हैं। बड़े लोग दृष्टि फिरा लेते, बच्चे हँसने लगते, और प्रियजन स्नेह से देखकर भुला देते। ‘जाकी रही भावना जैसी।
एक दिन हमारे गृहभृत्य लोहनीजी माँ से कहने लगे-बड़ी अजीब औरत है। हम चाय लेकर गए तो हमें आँख मारने लगी। कर्मकांडी ब्राह्मण लोहनीजी को एक मेम की वह निर्लज्ज लगनेवाली मुद्रा, जो शारीरिक विकृतिवश उस बेचारी की आदत बन गई थी, बेहद भड़का गई थी। लोहनीजी को कौन समझा सकता था? उनकी कुपित दृष्टि में तो वह अन्त तक 'हर्राफा' मेम ही बनी रही।
हमारे लोहनीजी शक्की व्यक्ति थे। साथ ही अपने रूप से उन्हें एक विकट नारदमोह भी था। कहने लगे-पहले झिजाड़ (अल्मोड़े का एक मुहल्ला) की चुडैलें हमारे पीछे लगीं, अब यह बेशरम फिरंगिन। अपने दबंग व्यक्तित्व पर भी उनको बड़ा गर्व था। 'पुरखिया' (मेरे भाई उन्हें इसी नाम से पुकारते, वैसे उनका नाम था पुरुषोत्तम, एकदम उनके व्यक्तित्व से मेल खाता) को ट्रे में बड़ी ऐंठ के साथ चाय लेकर जाते देख भाई उनका अहं छेड़ देते-क्यों आज इतना सजा-धजा क्यों है? कॉरबेट साहब की बहन भी उनके साथ आ रही हैं, इसलिए?
पुरखिया भड़क जाते-भाड़ में जाए फिरंगिन, यहाँ पहाड़ की एक-से-एक सुन्दरी चुडैलें, चाँचरियाँ हमारे पीछे-पीछे हाथ बाँधे घूमती रहती हैं। सतराली का यह बामण मेम को कभी घास भी नहीं डालता।
अपने उस उदार, अतिथि प्रेमी और परिहासरसिक परिवार की नाना स्मृतियों से घिरे उस उजड़े दयार को आज देखती हूँ तो उन टूटी-फूटी दीवारों से और भी न जाने कितने परिचित चेहरे झाँकने लगते हैं। फोटोग्राफी तब नई कला थी। कभी बड़े नामी फोटोग्राफर्स की खींची एक-से-एक दुर्लभ फोटोग्राफ्स हमारे घर में संकलित थीं-परीशाह की, देवीदयाल की, रविवर्मा की। उनकी दुर्लभ प्रदर्शनियाँ कभी हमारी वैठक की दीवारों की शोभा द्विगुणित करती थीं। आज सुना, उनमें से कुछ टूटे शीशों से आती बर्फीली बयार के वेग को रोकने कहीं फूहड़ ढंग से कीलों से ठोंक दी गई हैं। जाने कहाँ होगी जसदण की सुन्दरी नाना बा की वह तस्वीर? कठी में जगमगाते उनके वे नवरत्न भी क्या उपेक्षित उस चित्र के साथ-साथ धूमिल हो उठे होंगे? दतिया के राजकुमार का भी तो एक चित्र था। जव खिड़की के टूटे काँच पर तस्वीरों का ठुका होना सुना, तो आँखें भर आईं। यह थे, राजकुमार बुलबुल, जो दो वर्ष तक हमारे गृह में रहे। तब भी वे सदा वैसे ही सहमे-सहमे से रहते थे, जितने चित्र में दिखते थे। डरने का कारण भी था, विमाता ने उनके प्राण लेने की पूरी चेष्टा की थी, किन्तु उनकी कुमन्त्रणा विफल रही। सुना, राजा मुंज के मन्त्री की भाँति, बुलबुल का मासूम चेहरा देख, हत्यारे को अन्त तक उनके प्राण लेने का साहस नहीं रहा। अंग्रेज रेजिडेंट ने मेरे पिता को उनका गार्जियन बना, हमारे घर में रखने का आदेश दिया। हमारे गृह का कठोर अनुशासन उनके राजमहल से एकदम उलटा था, फिर भी हमारे यहाँ उन्हें प्राणों का भय तो नहीं था। बहुत वर्षों बाद, वे अम्मा से मिलने आए, चेहरा और भी मासूम लग रहा था और उतना ही कमनीय। अब वे प्रभुसत्तासम्पन्न दतिया महाराज थे, फिर भी हमारे गृह के आतिथ्य को भूले नहीं थे।
रामपुर रियासत में मेरे पिता लम्बे समय तक होम मिनिस्टर रहे। मरहूम नवाब रजाअली खान का वह चिरपरिचित पारिवारिक चित्र भी इधर कहीं नहीं देखा, जो कभी हमारे घर में लगा था। चित्र में डॉन और वली अहद के चेहरे सदा की भाँति फूल-से खिले लगते, और नवाब साहब के कानों में छोटे हीरे के कण जगमगाते थे। बचपन में हम उनके साथ कभी-कभी खेलने पैलेस जाते, पर रियासत में तब पर्दा ऐसा विकट था कि मेरे पाँच वर्ष के भाई राजा को हुजूर आला की सहमति लेनी पड़ती। वे पाँच वर्ष के अबोध बालक से भी पर्दा करती थीं। खासबाग से क्रिसमस में हमारे लिए टोकरी-भर खिलौने आते, रंगीन क्रैकर, चाइनीज चेकर जो तब नया-नया चला था, क्रिसमस की लाल स्टॉकिंग भरकर टॉफी-चॉकलेट। ईद का तो कहना ही क्या? नया जोड़ा सिलने, नाप लेने मूलचंद दरजी आता, फिर अल्वी साहब, जो मेरे पिता के स्टेनो थे, हमें अपने साथ मस्जिद ले जाते-वहाँ से सीधे बाजार। साढ़े पाँच आनेवाली एक दूकान, हमारी प्रिय दूकान थी। उसमें से मुझे मिलते थे-गुड़ियों का सोफा सेट, नन्हा टिफिन कैरियर, एक रंगीन पट्टे पर सुनहली पन्नी पर चिपके गुड़िया के हार-अँगूठी। उधर भाई को भी मनचाही चीजें मिल जाती-बन्दूक, छोटी-सी दूरबीन, एक और विचित्र खिलौना टेलिस्कोप। उस पर गुलाबी कागज चिपका रहता, नीचे से काँच। गोल-गोल घुमाते रहो और रंगीन काँच के टुकड़ों की मदद से वह उपकरण भाँति-भाँति के रंगीन फूल खिलाता रहता। चाहे कुछ भी खरीद लो, दाम कुल साढ़े पाँच आने। अपनी खरीद से परम सन्तुष्ट हो, नन्हें खिलौनों से लदे-फदे हम घर लौटते और सारे खिलौने उस रात हमारे साथ ही सोते। जहाँ हमारा बचपन और कैशोर्य बीता हो, वहाँ की मिट्टी की सौंधी सुगन्ध हमारी देह से कभी विलग नहीं होती। सौराष्ट्र, कुमाऊँ, रामपुर जहाँ कहीं मेरा बचपन खेला, वहाँ की अनेक स्मृतियाँ आज मेरे जीवन के निभृत एकान्त क्षणों में कभी-कभी बुरी तरह गला घोंटने लगती हैं।
कहाँ गए वे दिन? वे किस्से-कहानियाँ ?
किस्सों के नाम पर बचपन में माँ से सुनी, एक अन्य अजीब घटना याद हो आती है। सौराष्ट्र की एक छोटी-सी रियासत की रानी, एक विचित्र रोग से पीड़ित हो मरणासन्न थीं। माँ उन्हें जानती थी, उनके पति राजकुमार कॉलेज में मेरे पिता के शिष्य रह चुके थे। एक अजीब सुदीर्घ व्याधि, धीरे-धीरे रानी की हड्डियाँ गलाने लगी थी। सुन्दर शरीर कंकालमात्र रह गया। पति का अपनी सुन्दरी रानी से अनन्य प्रेम था। जब वे उठने-बैठने में भी असमर्थ हो गईं, तो राजा ने उनके लिए एक विराट सोने का पिंजरा बनवाया, जिसमें छपरखट लगाकर वे सोती थीं। पति ने सोचा था, "मृत्यु की क्या बिसात, जो उनकी प्रिय पत्नी को इस स्वर्ण पिंजरे से खींच ले जाए? पर माँ बताती थी, मृत्यु से कौन जीता है भला? राजा हो या रंक? आधी रात को एक दिन मृत्यु दबे पाँव आई, और उन्हें खींच ले गई। अगली सुबह पिंजरा खाली था. ताला वैसा ही बन्द था जैसा पति नित्य कर जाते थे।
रवीन्द्रनाथ की एक बड़ी सुन्दर कविता है-
दिन गुली मोर
सोनार खाँचाय रईलो ना,
शेई जे आमार नानारंगेर
दिन गुली-
हाय मेरे सोने के पिंजरे में बन्द, नाना रंग भरे वे दिन नहीं रहे-
रानी के साथ भी यही हुआ, हंसा उड़ गया, पिंजरा-भर रह गया। हमारे साथ भी यही होगा। तस्मात् जाग्रत, जाग्रत!
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