संस्मरण >> सुनहु तात यह अकथ कहानी सुनहु तात यह अकथ कहानीशिवानी
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प्रस्तुत है पुस्तक सुनहु तात यह अकथ कहानी......
इस जीवन में, अंगुली पकड़ विधाता ने कैसी-कैसी अली गलियों की छटा दिखाई है!
बचपन में सिर पर मोबाइल सिनेमा का कागजी रंगीन डिब्बा लादे गुजराती दम्पत्ति
दो-दो पैसे में बहुरंगी नजारे दिखाने का प्रलोभन दे हमें पाइडपाइपर की भाँति
अपने साथ खींच ले जाते थे-
देख, बाबू देख
तू मुल्को मजा देख
मक्का-मदीना देख
देवर-भौजी देख
काँटा निकलता देख
लैला-मजनू देख
और नंगी धोबन देख
ढाई मन की धोबन देख
ये ही उस युग की आर्ट फ़िल्म थी। ऐसे ही नजारे विधाता ने भी दिखा दिए, किन्तु जो देखा, उसे औरों को भी दिखा पाना सम्भव नहीं है। फिर भी विधाता का यह प्रभूत दान है कि ऐसा बहुरंगी वैविध्यपूर्ण जीवन जीने का सुअवसर दिया।
कभी बर्ट्रेड रसेल की जीवनी में पढ़ा था कि बढ़ती उम्र मनुष्य को धीर-गम्भीर बना देती है। मैं तो सोचती थी कि बढ़ती उम्र हमें बालक-सा अधीर. जिद्दी बना देती है, किन्तु जब स्वयं मील का अन्तिम पत्थर पकड़े खड़ी हूँ, तो रसेल का अनुभूत सत्य स्वयं समझ में आ जाता है। आज से पचास वर्ष पूर्व अपने चिरपुरातन भृत्य वृद्ध लोहनीजी की एक सीख ने मुझे विपत्ति के कठिन क्षणों में भी अपूर्व शक्ति दी है।
मैं नई-नई ससुराल से लौटी थी। मायके में कभी सींक के दो टुकड़े भी नहीं किए थे। ससुराल में दूसरे ही दिन पब्लिक सर्विस कमीशन की-सी कठोर परीक्षा से गुजरना पड़ा। चारों ओर से आदेशों की बौछारें थीं, “बहू उड़द पीसो।"
"बहू अल्पना देना सीखा है मायके में? अल्पना दो!
"लो चक्की में चने की दाल दल डालो!"
मैंने माँ से तो कुछ नहीं कहा, एकान्त में लोहनी जी के सामने सब उगल कर रोने लगी। उन्होंने मुझे जी-भरकर रोने दिया, फिर मेरी पीठ सहलाकर बोले, “सब ठीक हो जाएगा। धीरज रख । तुझे पति तो देवता मिला है ना? हिम्मत कभी मत हारना और कभी भूलकर भी यह मत कहना कि फलाँ काम मुझे नहीं आता, फलाँ काम मैंने कभी किया ही नहीं। तूने पहाड़ी 'डोटयाल' (कुली) को देखा है ना? वह जब भी भारी बोझा, पीठ पर लादे चढ़ाई चढ़ता है तो एक मन भर का भारी बोझा पीठ पर और बाँध लेता है और टेढ़ी-मेढ़ी चाल से चढ़ाई चढ़ता है। आधी चढ़ाई पार कर फिर वह पीठ पर बँधे पत्थर को लुढ़का देता है-बची चढ़ाई पार करने में फिर पीठ का बोझा फूल-सा हलका लगने लगता है। ऐसे कितना ही भारी बोझ हो, उस पर और बोझा बाँध लो, जब आधी चढ़ाई पार कर लोगी, तो देखना, व्यर्थ ढोए गए पत्थर का बोझ भी सार्थक प्रतीत होगा।"
यह एक अपढ़, किन्तु अनुभवी वृद्ध की सीख थी, जो जीवन का हर बोझा हलका करने में सहायक रही। टेढ़े-मेढ़े चलने का गूढार्थ यह है कि जीवन की नीरसता टेढ़े-मेढ़े चलकर ही कम होगी। हाँडी-सा मुँह लटकाए, स्वयं अपने को दया का पात्र बना, एक ही सीध में चलकर नहीं।
विपत्तियाँ किसके जीवन में नहीं आती? मृत्यु किसका द्वार नहीं खटकाती? किन्तु विपत्ति झेलने से पहले ही हमने हथियार डाल दिए, तो विपत्ति भी शत्रु पक्ष की कमजोरी को भाँप, उसे और दबोच लेती है। गुरुदेव की वह पंक्ति, जो हम आश्रम के छात्र-छात्राओं को गायत्री-मन्त्र-सी रटाई जाती थी, अभी भी हमारे लिए उतनी ही सार्थक है-
विपते मोर रक्षा करो
ए नहीं मोर प्रार्थना
विपत्ते आमी ना जैनो करीमय
(हे प्रभ, विपत्ति में हमारी रक्षा करो, यह हमारी प्रार्थना नहीं है, हमें ऐसा कठोर बना दो कि हम विपत्ति से डरें नहीं।)
आज, अपने दीर्घ जीवन का लेखा-जोखा बटोरने लगती हूँ, तो गुरुदेव की ही अपने मित्र को लिखी एक पंक्ति याद हो आती है-दीर्घ जीवन एकटा दीर्घ अभिशाप, (दीर्घ जीवन एक दीर्घ अभिशाप है)।
ऐसा ही कुछ, मेरी माँ भी अन्त तक बुदबुदाती रही थीं, 'कलियुगे धन्या जनाः ये मृताः' (अर्थात् कलियुग में जो मर जाते हैं, वे धन्य हैं। सचमुच दीर्घ जीवन का अर्थ ही है, एक दीर्घ अभिशाप। कितनों का बिछोह सहा, कितने आघात, प्रवंचना, अपमान, मिथ्या-लांछन...न जाने कितनी बार चित्त क्षुब्ध हुआ! बहनों का वैधव्य देखा, जिन स्नेही सुदर्शन जीजाओं के कभी जूते चुराए थे, उन्हीं के निष्प्राण अर्थों में बँधे पैरों पर चन्दन की काठी धरी, वैधव्य का शोक वहन किया, जिस छोटे भाई से अपने पीठ पीछे होने का मुझे कुछ अधिक ही लगाव था, उसकी भरी-पूरी गृहस्थी को पल-भर में उजड़ते देखा। बचपन में कभी गिर पड़ता, चोट लगती, तो वह मेरी ही ओर भागता। छाती से चिपटा उसे कितनी बार चुप कराया है, किन्तु आज जिस पुत्र शोक के आधात से वह चुपचाप पड़ा है, उसे क्या मैं दिलासा दे सकती हूँ। प्रत्येक वर्ष जवान बेटा विदेश से आता, तो कैसा उल्लास रहता था! आज उसी गृह में पुत्र के बदले उसका अस्थिकलश आया है।
यह सब देख, लगता है गुरुदेव ने सत्य ही कहा था, दीर्घ जीवन, एक दीर्घ अभिशाप ही तो है, किन्तु दुख-सुख की यही पींगें हमें अधिक सहिष्णु, अधिक संवेदनशील बना देती हैं। वसुन्धरा के प्रति हमारा मोह स्वयं कम होता जाता है।
हम जब रामपुर में थे तो कभी-कभी दो बड़े तेजस्वी चेहरेवाले फकीर, काली कफनी पहने, हाथ में बीसियों लोहे के ढीले छल्लों को, चाप (रूल जैसी लकड़ी) से खनकाते बड़े ही मधुर स्वर में दो ही पंक्तियाँ गाते थे-
सब ठाठ पड़ा रह जाएगा
जब लाद चलेगा बंजारा।
यदि नजीर की इन दो गूढ़ पंक्तियों के सत्य को समझ लिया जाए तो फिर वसुन्धरा का मोह कैसा?
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