संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
दस
आज मैं अंग्रेजी की एक पत्रिका में एक ऐसे विद्वान लेखक का लेख पढ़ रही थी,
जिन्होंने मानव स्वभाव की गुत्थियों के अनुसन्धान में ही अपना जीवन यापित
किया है। उन्होंने अपने सुलिखित निबन्ध का समापन इस निष्कर्ष से किया है कि
"मानव चरित्र पर सबसे अधिक प्रभाव उसके परिवेश का पड़ता है। यदि एक ही
माता-पिता की दो सन्तानों को दो विभिन्न परिवेशों में रखा जाए तो निश्चय ही
उनके स्वभाव, उनके आचरण में स्थानगत भिन्नता दृष्टिगोचर होगी, अर्थात् मानव
के कुलगत संस्कारों का उस पर उल्लेखनीय स्थायी प्रभाव नहीं पड़ सकता।" किन्तु
कभी-कभी वास्तविकता इस निष्कर्ष को झुठला भी देती है। हमारे देश की एक कहावत
ही हमारे देश में अधिक सार्थक होकर उभारती है।
जात का बछड़ा औकात का घोड़ा
बहुत नहीं तो थोड़ा-थोड़ा।
मैंने अपने कुछ परिचित परिवारों में एवं स्वयं अपने परिवार में कुछ ऐसे दुःखदायक दृष्टान्त देखे हैं जिनसे उक्त कहावत पर ही विश्वास अधिक दृढ़ हो उठता है। कुलगत संस्कार निश्चय ही किसी-न-किसी रूप में हममें तब तक वर्तमान एवं सजग हैं, जब तक हम चिता पर नहीं चढ़ते।
मेरी एक सहपाठिनी के पति गाजियाबाद के समृद्धतम नागरिकों में से थे। अभी कुछ ही दिन पूर्व उनका देहान्त हुआ। निःसन्तान दम्पति ने न जाने क्या सोचकर जीवन की प्रौढ़ गोधूलि में एक पुत्र गोद ले लिया। कुछ वर्ष पूर्व जब वह पुत्र को लेकर मुझसे मिलने आई तो वह सात-आठ वर्ष का रहा होगा, किन्तु उसके उस अकाल परिपक्व पुत्र के गालियों के अद्भुत कोष ने मुझे कुछ ही घंटों में सहमा दिया था। केवल गालियाँ ही नहीं, उसकी अबाध्यता, उसकी जिद और उसका अस्वाभाविक क्रोध देखकर मैंने उसकी माँ को सामान्य चेतावनी देने की चेष्टा भी की थी, "अभी से तुमने इसे बहुत सिर चढ़ा लिया है। सावधान रहना, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा बुढ़ापा ख़राब करे।"
वही हठी बालक अब एक ऐसा उदंड किशोर बन गया है, जिसकी लगाम साधने में मेरी सहपाठिनी धैर्यच्युत होती, बौखला-सी गई है। "भूल मेरी ही है।" उसने मुझे लिखा है, "गोद ही लेना था तो अपने ही पति के या अपने पिता के कुल से किसी को लिया होता, तब शायद आज ऐसे मत्था नहीं ठोंकती।" किसी होम से लिए गए अज्ञात कुलगोत्र के उस अवांछित परित्यक्त पुत्र के अतीत के विषय में वह जीवन-भर अनभिज्ञ ही रहेगी तब भी उसने अनुमान लगा लिया था कि उसका कुल निश्चय ही किसी संदिग्ध रहस्य की कालिमा से अभिशप्त रहा होगा।
ऐसे ही मेरी एक अन्य परिचिता ने भी अस्पताल से एक नवजात सुन्दर शिशु कन्या को छाती से लगाकर पाला, वह भी निःसन्तान थी। आज उस किशोरी पुत्री ने भी माँ को अपना अकृतज्ञ अँगूठा दिखा, उसका जीना दूभर कर दिया है।
उक्त दोनों जननियों ने दत्तक पुत्र-पुत्री के लालन-पालन में, शिक्षा में उन्हें स्नेह की अकृपण घुट्टी पिलाने में कोई कसर नहीं बरती, अर्थात् परिष्कृत परिवेश की परिच्छन्नता में कोई त्रुटि नहीं रहने दी। किन्तु उनके मज्जागतकुलगत संस्कारों ने उनके चित्त के विद्रोह को प्रखर कर एक-न-एक समय अबाध्य उदंड बना ही दिया।
"उदार पॉकेट मनी देती हूँ, एक से एक नए कपड़े सिलवा दिए हैं, किताबें खरीद दी हैं," मेरी गाजियाबाद वाली परिचिता ने मुझसे कहा, "पर फिर भी बाप की जेब से सौ का नोट निकाल लिया। कभी-कभी तो लगता है, लाख सिर पटकने पर भी इसे अपने खानदान के ढाँचे में हम नहीं ढाल पाएँगे, यह अपने ही अभागे खानदान पर जाएगा।"
इस प्रयास में सबसे घातक पराजय कभी स्वयं मेरी माँ की हुई थी। मेरे जन्म से कुछ पूर्व एक बार मेरी माँ गुजरात के किसी ग्राम से एक अनाथ दुधमुंही बच्ची को उठा लाई थीं। ग्राम के पटेल ने ही उसे उनके चरणों में डालकर कहा था, "इसका कोई नहीं है सरकार, आप ही इसे जीवन-दान दें। बड़ी होगी तो आपकी सेवा करेगी और चरणों में पड़ी रहेगी।" अब कभी सोचती हैं कि किस अमानवीय साहस से माँ उसे उठाकर घर लाई होंगी. क्योंकि हमारे कट्टर सनातनी गृह में उस कंजर कन्या की उपस्थिति की कल्पना भी तब असम्भव प्रतीत हुई होगी। उसकी जाति का रहस्य कुछ दिनों तक मेरे पिता से भी गोपनीय रखा गया, पर चिन्ता पिता की नहीं, पितामह की थी, जो अंग्रेज मेम साहब से पढ़कर हमारे प्रत्यावर्तन को भी गोमूत्र के छींटों से शुद्ध करते थे। किन्तु सौभाग्य से वे काशी में थे और हम राजकोट में।
धीरे-धीरे पाँचुड़ी उर्फ पाँची बाई हम भाई-बहनों के साथ-साथ हमारी माँ की कड़ी स्नेहपूर्ण देख-रेख में बड़ी होने लगी। उसके सुघड़ सलीके, साफ-सुथरे, सँवरे व्यक्तित्व को देखकर कोई कह ही नहीं सकता था कि वह गुजराती उस कबीले की दुहिता है, जहाँ लड़कियाँ बड़ी होने तक केवल एक ह्रस्व लँगोटी धारण किए वन-जंगलों में घूमती-फिरती हैं। वह हमसे भी साफ पहाड़ी बोलती थी, एक से एक बढ़िया कढ़ाई-बिनाई के नमूने उतारती थी और सजने का तो उसे बेहद शौक था। केवल रंगरूप में विधाता ने उससे प्रवंचना की थी, जिसका उसे गहरा क्षोभ था।
धीरे-धीरे पाँची बाई बड़ी हुई। तेरह वर्ष में मेरी सबसे बड़ी बहन का विवाह हो गया था, इसी से माँ को चौदह वर्ष की पाँची की भी चिन्ता हुई। बड़ी चेष्टा से एक वर जुटा, पूरा परिवार कन्या को देखने आया। महा उत्साह से हमारे गृह में उनके स्वागत का आयोजन हुआ। सबकुछ लगभग ठीक हो चुका था कि करमजली पाँची ने ही अपने अशोभनीय आचरण से सब गुड़गोबर कर दिया। उसे कठोर आदेश दिया गया था कि विनम्र-सलज्ज मुद्रा में नतमुखी बैठी रहे। जब उसके भावी श्वसुर ने मेरी माँ से उसका गोत्र पूछा और माँ उत्तर नहीं दे पाई तो पाँची बाई ने धूंघट उलट स्वयं उत्तर दे दिया। वह भी निर्लज्ज अट्टहास के साथ, "हा हा हथियाणी, बा हूँ पूछी आवी हूँ" (अर्थात् माँ, मैं पूछ आई हूँ)। ग्राम के पटेल से यह दुर्लभ सूचना बटोर, वह पहले ही इस सम्भावना के लिए तैयार होकर आई थी। वरपार्टी उसी क्षण लाठी-पोटली समेट चली गई।
"ऐसी बेहया बहू लेकर मैं क्या करूँगा बा साहेब," कह बुड्ढा चला गया था। हमारी ही भाँति पाँची भी हमारी माँ को 'बा' कहती थी, "बा हवे हूँ कशु नई कहूँ;" (माँ, अब मैं कुछ नहीं कहूँगी) उसने कहा था, किन्तु फिर उसके नवीन वरसंधान में माँ को प्राणघातक चेष्टा करनी पड़ी थी। अन्त में किसी ने एक और पात्र ढूँढ़ दिया। जीवा सीधा-सरल अनाथ युवक उसी की जाति का था, किन्तु उसकी भी एक शर्त थी, उसे ड्राइवरी सिखा हमें उसे अपना ड्राइवर बनाना होगा। उसकी वह शर्त भी मान ली गई। लहरदार बाँका साफा पहन भाड़े के सात-आठ बराती बटोर पाँची बाई का दूल्हा हमारे द्वार पर आ खड़ा हुआ। मेरी माँ ने ही कन्यादान किया, दहेज दिया और फिर उस विचित्र बारात का प्रस्थान हमारे ही सागरपेशे के दो कमरों में सीमित होकर अटक गया।
वही अब पाँची बाई की ससुराल थी। फिर तो नित्य ही पाँची बड़े अधिकार से अपनी चौथ बटोरने नित्य आने लगी, 'आज दाल नहीं है, चावल चाहिए, कढ़ी बनी है, बा?' हमारे अन्य पहाड़ी नौकरों को पाँची से कभी कोई विशेष लगाव नहीं रहा। उसे देखते ही वे भड़क उठते थे, “जब माँजी तनखा देती है तेरे आदमी को तो फिर माँगने यहाँ क्यों आती है?"
“खूब आऊँगी," वह कहती, "बा तो कुछ नहीं कहतीं, तुम क्यों जले-भुने जाते हो?"
धीरे-धीरे पाँची बाई का परिवार विस्तृत हुआ। पहले आई राधा बाई, फिर आए पोपट (तोताराम)। अब पत्र-पुत्री के जन्म के साथ माँ से पर्याप्त छोचक बटोर पाँची बाई स्वयं बा की सेवा से विमुख होती चली गई। फिर भी माँ का स्नेह उस पर पूर्ववत् बना हुआ था। हम जहाँ भी गए, माँ की उस मुँहलगी दत्तक पुत्री का परिवार साथ-साथ गया-रामपुर, मसूरी, अल्मोड़ा।
इस बीच घर के पुराने नौकर माँ को कई बार सावधान कर चुके थे कि पाँची बाई घर की छोटी-मोटी चीजें गायब करने लगी है। किन्तु माँ को उस पर अगाध विश्वास था। उन दिनों हमारे घर में चाँदी की कुछ अत्यन्त सुन्दर तश्तरियाँ थीं। एक-एक कर पहले वे गायब हुईं फिर अनेक लड़ियोंवाले पान गूंथने के मछलीदार चाँदी के काँटे। उधर पाँची बाई के एक ऐतिहासिक तकिया का कलेवर संदिग्ध रूप से बढ़ता जा रहा था। एक दिन धूप में सूख रहे उसी तकिया को निर्ममता से कोंच-कोंच हमारे एक भृत्य ने चाँदी की अदृश्य तश्तरियाँ मंजीरे-सी बजाकर झनझना दी। अपनी अकृतज्ञ दत्तक पुत्री का 'अद्भुत हस्तकौशल मेरी माँ को स्तब्ध कर गया था, फिर भी न जाने किस ममता की डोर से विवशता से बँधी वह उसे निष्कासित नहीं कर पाईं। बहुत वर्षों बाद जीवा की मृत्यु के पश्चात् वह स्वेच्छा से ही एक बार फिर अपनी विस्मृत जन्मभूमि की ओर लौट गई थी। जब वह गई तो उसका ऐतिहासिक तकिया भी उसके साथ था और उसके असामान्य कलेवर की गरिमा पूर्ववत् बनाए रखने में निश्चय ही हमारे गृह की अनेक छोटी-मोटी वस्तुओं का योगदान रहा होगा, क्योंकि जाने से पूर्व तकिया एक बार गिरकर छम्म से फिर मंजीरे-सा बज उठा था।
जात का बछड़ा औकात का घोड़ा
बहुत नहीं तो थोड़ा-थोड़ा।
मैंने अपने कुछ परिचित परिवारों में एवं स्वयं अपने परिवार में कुछ ऐसे दुःखदायक दृष्टान्त देखे हैं जिनसे उक्त कहावत पर ही विश्वास अधिक दृढ़ हो उठता है। कुलगत संस्कार निश्चय ही किसी-न-किसी रूप में हममें तब तक वर्तमान एवं सजग हैं, जब तक हम चिता पर नहीं चढ़ते।
मेरी एक सहपाठिनी के पति गाजियाबाद के समृद्धतम नागरिकों में से थे। अभी कुछ ही दिन पूर्व उनका देहान्त हुआ। निःसन्तान दम्पति ने न जाने क्या सोचकर जीवन की प्रौढ़ गोधूलि में एक पुत्र गोद ले लिया। कुछ वर्ष पूर्व जब वह पुत्र को लेकर मुझसे मिलने आई तो वह सात-आठ वर्ष का रहा होगा, किन्तु उसके उस अकाल परिपक्व पुत्र के गालियों के अद्भुत कोष ने मुझे कुछ ही घंटों में सहमा दिया था। केवल गालियाँ ही नहीं, उसकी अबाध्यता, उसकी जिद और उसका अस्वाभाविक क्रोध देखकर मैंने उसकी माँ को सामान्य चेतावनी देने की चेष्टा भी की थी, "अभी से तुमने इसे बहुत सिर चढ़ा लिया है। सावधान रहना, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा बुढ़ापा ख़राब करे।"
वही हठी बालक अब एक ऐसा उदंड किशोर बन गया है, जिसकी लगाम साधने में मेरी सहपाठिनी धैर्यच्युत होती, बौखला-सी गई है। "भूल मेरी ही है।" उसने मुझे लिखा है, "गोद ही लेना था तो अपने ही पति के या अपने पिता के कुल से किसी को लिया होता, तब शायद आज ऐसे मत्था नहीं ठोंकती।" किसी होम से लिए गए अज्ञात कुलगोत्र के उस अवांछित परित्यक्त पुत्र के अतीत के विषय में वह जीवन-भर अनभिज्ञ ही रहेगी तब भी उसने अनुमान लगा लिया था कि उसका कुल निश्चय ही किसी संदिग्ध रहस्य की कालिमा से अभिशप्त रहा होगा।
ऐसे ही मेरी एक अन्य परिचिता ने भी अस्पताल से एक नवजात सुन्दर शिशु कन्या को छाती से लगाकर पाला, वह भी निःसन्तान थी। आज उस किशोरी पुत्री ने भी माँ को अपना अकृतज्ञ अँगूठा दिखा, उसका जीना दूभर कर दिया है।
उक्त दोनों जननियों ने दत्तक पुत्र-पुत्री के लालन-पालन में, शिक्षा में उन्हें स्नेह की अकृपण घुट्टी पिलाने में कोई कसर नहीं बरती, अर्थात् परिष्कृत परिवेश की परिच्छन्नता में कोई त्रुटि नहीं रहने दी। किन्तु उनके मज्जागतकुलगत संस्कारों ने उनके चित्त के विद्रोह को प्रखर कर एक-न-एक समय अबाध्य उदंड बना ही दिया।
"उदार पॉकेट मनी देती हूँ, एक से एक नए कपड़े सिलवा दिए हैं, किताबें खरीद दी हैं," मेरी गाजियाबाद वाली परिचिता ने मुझसे कहा, "पर फिर भी बाप की जेब से सौ का नोट निकाल लिया। कभी-कभी तो लगता है, लाख सिर पटकने पर भी इसे अपने खानदान के ढाँचे में हम नहीं ढाल पाएँगे, यह अपने ही अभागे खानदान पर जाएगा।"
इस प्रयास में सबसे घातक पराजय कभी स्वयं मेरी माँ की हुई थी। मेरे जन्म से कुछ पूर्व एक बार मेरी माँ गुजरात के किसी ग्राम से एक अनाथ दुधमुंही बच्ची को उठा लाई थीं। ग्राम के पटेल ने ही उसे उनके चरणों में डालकर कहा था, "इसका कोई नहीं है सरकार, आप ही इसे जीवन-दान दें। बड़ी होगी तो आपकी सेवा करेगी और चरणों में पड़ी रहेगी।" अब कभी सोचती हैं कि किस अमानवीय साहस से माँ उसे उठाकर घर लाई होंगी. क्योंकि हमारे कट्टर सनातनी गृह में उस कंजर कन्या की उपस्थिति की कल्पना भी तब असम्भव प्रतीत हुई होगी। उसकी जाति का रहस्य कुछ दिनों तक मेरे पिता से भी गोपनीय रखा गया, पर चिन्ता पिता की नहीं, पितामह की थी, जो अंग्रेज मेम साहब से पढ़कर हमारे प्रत्यावर्तन को भी गोमूत्र के छींटों से शुद्ध करते थे। किन्तु सौभाग्य से वे काशी में थे और हम राजकोट में।
धीरे-धीरे पाँचुड़ी उर्फ पाँची बाई हम भाई-बहनों के साथ-साथ हमारी माँ की कड़ी स्नेहपूर्ण देख-रेख में बड़ी होने लगी। उसके सुघड़ सलीके, साफ-सुथरे, सँवरे व्यक्तित्व को देखकर कोई कह ही नहीं सकता था कि वह गुजराती उस कबीले की दुहिता है, जहाँ लड़कियाँ बड़ी होने तक केवल एक ह्रस्व लँगोटी धारण किए वन-जंगलों में घूमती-फिरती हैं। वह हमसे भी साफ पहाड़ी बोलती थी, एक से एक बढ़िया कढ़ाई-बिनाई के नमूने उतारती थी और सजने का तो उसे बेहद शौक था। केवल रंगरूप में विधाता ने उससे प्रवंचना की थी, जिसका उसे गहरा क्षोभ था।
धीरे-धीरे पाँची बाई बड़ी हुई। तेरह वर्ष में मेरी सबसे बड़ी बहन का विवाह हो गया था, इसी से माँ को चौदह वर्ष की पाँची की भी चिन्ता हुई। बड़ी चेष्टा से एक वर जुटा, पूरा परिवार कन्या को देखने आया। महा उत्साह से हमारे गृह में उनके स्वागत का आयोजन हुआ। सबकुछ लगभग ठीक हो चुका था कि करमजली पाँची ने ही अपने अशोभनीय आचरण से सब गुड़गोबर कर दिया। उसे कठोर आदेश दिया गया था कि विनम्र-सलज्ज मुद्रा में नतमुखी बैठी रहे। जब उसके भावी श्वसुर ने मेरी माँ से उसका गोत्र पूछा और माँ उत्तर नहीं दे पाई तो पाँची बाई ने धूंघट उलट स्वयं उत्तर दे दिया। वह भी निर्लज्ज अट्टहास के साथ, "हा हा हथियाणी, बा हूँ पूछी आवी हूँ" (अर्थात् माँ, मैं पूछ आई हूँ)। ग्राम के पटेल से यह दुर्लभ सूचना बटोर, वह पहले ही इस सम्भावना के लिए तैयार होकर आई थी। वरपार्टी उसी क्षण लाठी-पोटली समेट चली गई।
"ऐसी बेहया बहू लेकर मैं क्या करूँगा बा साहेब," कह बुड्ढा चला गया था। हमारी ही भाँति पाँची भी हमारी माँ को 'बा' कहती थी, "बा हवे हूँ कशु नई कहूँ;" (माँ, अब मैं कुछ नहीं कहूँगी) उसने कहा था, किन्तु फिर उसके नवीन वरसंधान में माँ को प्राणघातक चेष्टा करनी पड़ी थी। अन्त में किसी ने एक और पात्र ढूँढ़ दिया। जीवा सीधा-सरल अनाथ युवक उसी की जाति का था, किन्तु उसकी भी एक शर्त थी, उसे ड्राइवरी सिखा हमें उसे अपना ड्राइवर बनाना होगा। उसकी वह शर्त भी मान ली गई। लहरदार बाँका साफा पहन भाड़े के सात-आठ बराती बटोर पाँची बाई का दूल्हा हमारे द्वार पर आ खड़ा हुआ। मेरी माँ ने ही कन्यादान किया, दहेज दिया और फिर उस विचित्र बारात का प्रस्थान हमारे ही सागरपेशे के दो कमरों में सीमित होकर अटक गया।
वही अब पाँची बाई की ससुराल थी। फिर तो नित्य ही पाँची बड़े अधिकार से अपनी चौथ बटोरने नित्य आने लगी, 'आज दाल नहीं है, चावल चाहिए, कढ़ी बनी है, बा?' हमारे अन्य पहाड़ी नौकरों को पाँची से कभी कोई विशेष लगाव नहीं रहा। उसे देखते ही वे भड़क उठते थे, “जब माँजी तनखा देती है तेरे आदमी को तो फिर माँगने यहाँ क्यों आती है?"
“खूब आऊँगी," वह कहती, "बा तो कुछ नहीं कहतीं, तुम क्यों जले-भुने जाते हो?"
धीरे-धीरे पाँची बाई का परिवार विस्तृत हुआ। पहले आई राधा बाई, फिर आए पोपट (तोताराम)। अब पत्र-पुत्री के जन्म के साथ माँ से पर्याप्त छोचक बटोर पाँची बाई स्वयं बा की सेवा से विमुख होती चली गई। फिर भी माँ का स्नेह उस पर पूर्ववत् बना हुआ था। हम जहाँ भी गए, माँ की उस मुँहलगी दत्तक पुत्री का परिवार साथ-साथ गया-रामपुर, मसूरी, अल्मोड़ा।
इस बीच घर के पुराने नौकर माँ को कई बार सावधान कर चुके थे कि पाँची बाई घर की छोटी-मोटी चीजें गायब करने लगी है। किन्तु माँ को उस पर अगाध विश्वास था। उन दिनों हमारे घर में चाँदी की कुछ अत्यन्त सुन्दर तश्तरियाँ थीं। एक-एक कर पहले वे गायब हुईं फिर अनेक लड़ियोंवाले पान गूंथने के मछलीदार चाँदी के काँटे। उधर पाँची बाई के एक ऐतिहासिक तकिया का कलेवर संदिग्ध रूप से बढ़ता जा रहा था। एक दिन धूप में सूख रहे उसी तकिया को निर्ममता से कोंच-कोंच हमारे एक भृत्य ने चाँदी की अदृश्य तश्तरियाँ मंजीरे-सी बजाकर झनझना दी। अपनी अकृतज्ञ दत्तक पुत्री का 'अद्भुत हस्तकौशल मेरी माँ को स्तब्ध कर गया था, फिर भी न जाने किस ममता की डोर से विवशता से बँधी वह उसे निष्कासित नहीं कर पाईं। बहुत वर्षों बाद जीवा की मृत्यु के पश्चात् वह स्वेच्छा से ही एक बार फिर अपनी विस्मृत जन्मभूमि की ओर लौट गई थी। जब वह गई तो उसका ऐतिहासिक तकिया भी उसके साथ था और उसके असामान्य कलेवर की गरिमा पूर्ववत् बनाए रखने में निश्चय ही हमारे गृह की अनेक छोटी-मोटी वस्तुओं का योगदान रहा होगा, क्योंकि जाने से पूर्व तकिया एक बार गिरकर छम्म से फिर मंजीरे-सा बज उठा था।
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