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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


नौ


मानव-जीवन में असमानता ही एक ऐसा सूत्र है जो उसे एक-न-एक दिन विद्रोही बना देती है। अपने पास जीवनयापन की सामान्य आवश्यकताओं का भी नितान्त अभाव, और किसी के पास तर्जनी उठाते ही प्रत्येक सुविधा करतलगत देख वंचित मनुष्य और भी विकट रूप से विद्रोही बन उठता है। जब उसे यह अभिज्ञता झकझोरती है कि जिनके पास आज शासन की सत्ता है, जिन्हें उसने स्वयं लाखों की भीड़ में चयन कर, जयमाल पहना, राजदण्ड थमा हिरण्यमय आसन पर प्रतिष्ठित किया था, आज वे ही स्वार्थानुसंधान की दौड़ में तीव्र गति से भागते, स्वयं अपने उन्हीं उपासकों को अवज्ञापूर्ण अवहेलना से लगभग भूल चुके हैं, जिन्होंने उन्हें परम विश्वास से सत्ता सौंपी थी।

जब स्वार्थ क्षुधातुर रक्षक ही स्वयं भक्षक बन भरी सभा में निर्लज्ज डकारें लेने लगता है तो उन अमर्यादापूर्ण डकारों की गर्जना छिपी नहीं रह सकती। समाज में व्याप्त असमता को आमूल विध्वंस करने के अपने सात्विकी आश्वासन को स्वयं ही पद-पद पर अधिकाधिक सत्ता बटोरने के प्रयास में विकृत करते हमारे आराध्य अब निश्चय ही हमारे आराध्य नहीं रह गए हैं। असमानता की आरी से चीरा गया आराध्य का अनन्य उपासक भी कभी उसका हृदयहीन शत्रु बन उठता है।

असन्तुष्ट एवं कुंठित समाज के असन्तोष एवं कुंठा की यही सामान्य-सी चिनगारी जब कभी एक भयावह विप्लव का रूप धारण करती समाज पर कैसे एक दीर्घ स्थायी रिसते नासूर की दुर्गन्ध छोड़ जाती है, इसका ज्वलन्त उदाहरण है फ्रांसीसी विप्लव। उस तूफान के बाद भी क्या समाज का आकाश निरभ्र रह पाया था? फिर, किसी भी रक्तपातपूर्ण विप्लव के पश्चात् क्षत-विक्षत समाज एक सुदीर्घ अवधि तक स्वस्थ साँस नहीं ले पाता, इतिहास इसका साक्षी है। न सैनिक शासन की सम्भावना ही एक सुखद सम्भावना के रूप में किसी विवेकी को आश्वस्त कर पाती है।

विज्ञान के इस युग में हमारा उद्बुद्ध विवेक इस आत्मिक विप्लव के सहारे भी दिन नहीं काट सकता कि हठात् किसी अज्ञात दिशा में किसी पैगम्बर या अवतार का उद्भव 'भक्तजनों के संकट छिन में दूर करेगा।'

दिन-प्रतिदिन अब हमें यही लगने लगा है कि इस कोलाहलपूर्ण मछुआबाजार में केवल स्वार्थी ग्राहक ही रह गए हैं और प्रत्येक क्रेता को केवल अपने निजी नफे की ही चिन्ता है, समाज या अपने परिवेश के व्यापक नफे की नहीं। शासनतन्त्र बदलने के साथ ही जिन सुखद आश्वासनों की हम पर वर्षा हुई थी, उससे लगा था कि हमारे नवीन शासक पुनर्निर्मित परिवेश में 'विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा' की सुपरिचित सुमधुर पंक्ति को अपनी कर्मठ कर्तव्यपरायणा से अवश्य सार्थक कर देंगे। इसी उजले भविष्य की सुखद सम्भावना ने हमारे अनेक सुनहले दिवास्वप्नों की भूमिका सँजोकर रख दी थी। किन्तु सुदीर्घ अवधि से शुष्क मरुभूमि में विचर रहे किसी तृषार्त यायावर की भाँति उस आश्वासन की मरीचिका अव अपने कटु यथार्थ से पर्याप्त मात्रा में क्षुब्ध कर चुकी है। ताश के बावन पत्तों में छिपे बादशाह-बीबी-गुलाम आज भी वैसे ही हैं, यह हम समझ गए हैं। प्रभुता का मद किसे नहीं डसता? साँपनाथ कहें या नागनाथ, बात एक ही है। न विषैली त्रासद फुफकार गई है, न लपलपाती मुखरा जिह्या का भय, न तने फन का त्रास। मनुष्य के विवेक को या तो विनाशकाल की विपरीत बुद्धि ही छीन लेती है या फिर अत्यन्त सुगमता से अनायास ही पकड़ में आ गई सत्ता ही उसे मदान्ध बना देती है।

मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि किसी भी परिवार में यदि माता-पिता अपनी सन्तान की उपस्थिति में स्वयं ही अबोध बालकों की भाँति नित्य नवीन कलह में लिप्त रहने लगते हैं तो आए दिन का वह गृह-कलह फिर एक-न-एक दिन स्वयं उनकी सन्तान के लिए ही घातक सिद्ध होता है। आज वही हो रहा है। भले ही वह किसी सत्ताधारी का किसी दरबारी विदूषक का-सा हास्यास्पद आचरण हो या दलबन्दी का स्पष्ट आभास दे रहे एक ही परिवार के अखाड़े में जूझ रहे खड़पेंचों की ललकार, ये व्यर्थ के तमाशे हमें किसी उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना से कदापि आश्वस्त नहीं कर सकते।

प्राचीनकाल में यह उल्लेख मिलता है कि शासक के लिए इन्द्रिय संयम अत्यन्त आवश्यक है। जो यह संयम नहीं कर सकता, वह राज्य का पालन भी नहीं कर सकता। वह समाज का मुखिया है, जितना लेना है, उतना ही ले-न अधिक, न कम। यही आयुर्वेद का भी अभिमत है, यदि इसमें हम असंयम बरतते हैं तो उसका दुष्परिणाम भी भले ही देरसवेर हो, भोगना हमें अवश्य पड़ेगा। यही असंयम, यही अहंकार विजया के मद की भाँति कभी-कभी जिह्वा को भी आवश्यकता से अधिक प्रगल्भा बना देता है। अभी चार दिन पूर्व, मेरे एक परिचित अहंकार के ऐसे ही अपच से पीड़ित हो, फोन पर बुरी तरह झल्ला रहे थे। उन्हें पहाड़ जाना था। नियमानुसार उन्हें वातानुकूलित यात्रा का सुखद अधिकार प्राप्त था, किन्तु उस दिन आरक्षण अधिकारी ने उन्हें फोन पर खेद सहित सूचना करने की धृष्टता की थी कि कोई बर्थ रिक्त नहीं है।

"क्या?" फोन भी उनकी मजबूत पकड़ में थर-थर काँपने लगा था, "कोई बर्थ खाली नहीं है? जानते हैं, आप किससे बात कर रहे हैं? मैं एम.पी. बोल रहा हँ-आपके रेलवे बोर्ड की फलाँ कमेटी का सदस्य। मैं आपको देख लँगा. समझे?" फिर एक अहंदीप्त दृष्टि से इधर-उधर देख उन्होंने कहा, “ऐसी अभद्रता से जब हमसे बोल रहे हैं हजरत, तो जाने जनता से कैसे बोलते होंगे?"

मैं उनसे कैसे कहती कि जनता से उनके बोलने का रिश्ता नहीं है, उसके सामने तो बड़ी समझदारी से हाथ फैलाया जाता है। मुट्ठी पर्याप्त मात्रा में गर्म कीजिए और एक नहीं, दस बर्थों पर पैर पसारकर आराम से सोइए। पर एक बात बार-बार मन में आ रही थी कि इनसे ही भला औरों से नम्र स्वर में क्यों बोले? क्या वे अब जनता के सेवक न रहकर सहसा सर्वशक्तिमान स्वामी बन गए हैं? कहाँ गई वह हाथ बाँधे मुस्कराती विनम्र मुद्रा? कहाँ गया वह सुशिष्ट स्मित, जिसकी भव्य महिमा से वह बीसियों वोट एकसाथ काँख में दाबे चले आए थे। यदि बर्थ नहीं थी तो न सही, उसमें परशुराम का उग्र फरसा घुमाने की भला क्या आवश्यकता थी?

क्या एक वर्ष पूर्व बीसियों बार उन्होंने उन श्री या टू टियर स्लीपरों में कठिन यात्रा नहीं की होगी, जिस यात्रा में कच्छप की भाँति मूंड़ी छिपाए, भारतीय रेलयात्री को किसी हठयोगी की-सी साधना में समग्र रात्रि काटनी पड़ती है?

ऐसे ही एक साहित्यिक गोष्ठी में हैदराबाद पहुँचने पर, संयोजक ने मुझे बीसियों कैफियतों का गुलदस्ता थमाकर अपनी विवशता व्यक्त की थी, "जिस राज्य अतिथिशाला में, आपके ठहरने का प्रबन्ध किया गया था, वहाँ एक केन्द्रीय मन्त्री के अचानक आगमन के कारण हम आपको ठहरा नहीं पा रहे हैं। इसी से शहर के सबसे प्रख्यात होटल में आपको हमारा आतिथ्य ग्रहण करना होगा। हम विश्वास दिलाते हैं, आपको वहाँ कोई कष्ट नहीं होगा।"

उनके त्रुटिहीन आतिथ्य ने मुझे कोई शारीरिक कष्ट तो नहीं होने दिया, किन्तु आत्मिक कष्ट अवश्य हुआ था। मेरे आने की सूचना एवं आरक्षण महीना-भर पूर्व ही हो चुका था जबकि मन्त्री प्रवर अचानक पधारे थे, फिर भी भला उन्हें होटल में ठहराने का घातक प्रस्ताव कौन कर सकता था? फिर मन्त्री मन्त्री थे और महीने पूर्व हुए आरक्षण की भी उनके लिए धज्जियाँ उड़ाई जा सकती थीं।

किन्तु अनेक अभावों से पीड़ित चित्त आज इन व्यर्थ की दलीलों को, सुखदुख के इस असम वितरण को, मान्यता देने को तत्पर नहीं होता। कम दाना-धास पाई इक्के में जुती मरियल दुर्बल घोड़ी भी कभी-कभी, अनुशासनप्रिय इक्केवान के कड़े चाबुक की अवहेलना कर बगटुट भाग, चालक सहित पूरे इक्के को भी उलट सकती है। जनता की सहिष्णुता का उत्स अब दिन-प्रतिदिन सूखता जा रहा है। आपातकालीन अत्याचारों के चिह्न रूप में प्रदर्शित शहीदों के घाव सीजर के घावों की भाँति प्रदर्शित होते-होते हमारी सहानुभूति को ही निगल चुके हैं। कभी निर्ममता से उखाड़ दिए गए पौधों की लहलहाती समृद्धि को अब न हमारी सहानुभूति की आवश्यकता है न हमारे सहयोग की आकांक्षा। किन्तु, मानव के दोनों हाथों को विधाता ने दो विपरीत शक्तियाँ प्रदान की हैं। वह एक हाथ से जिस नवीन परिवेश की सृष्टि करता है, वहीं दूसरे हाथ से उतनी ही तत्परता से उसका विध्वंस भी करने में समर्थ है। उसके भीतर ही भीतर सलग रही असन्तोष अभाव एवं विद्रोह की नन्ही चिनगारियाँ कभी भी लपलपाती लपटों से नव-निर्मित परिवेश को भस्मीभूत कर सकती हैं, इस सम्भावना के प्रति हमें निरन्तर जागरूक रहना है। हमारी यह जागरूकता, स्वाधीनता के प्रति यह सचेतनता हमारा हित ही करेगी, अनहित नहीं।

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